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महावीर परिचय और वाणी
वरण चाहते हैं किसपर करें ? ध्या शद म ही विषय का सयाल छिपा है । इसलिए महावीर न ध्यान की जगह जिस शब्द वा अधिक प्रयोग किया है वह है सामायिन । वह महावार वा अपना शब्द है । जब काई व्यक्ति अपनी जारमा भ ही होता है तप उस सामायिक महत है ।"
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आइस्टीन ने कहा था कि समय स्पस ( स्थान, क्षेत्र ) का ही चौया आयाम है, अरग चीज नहा । उसकी मृत्यु के पश्चात इस विषय पर वर काम हुआ और पाया गया कि दाम भी एक तरह की ऊजा (एनर्जी, शक्ति) है। अब का कहना है कि मनुष्य का शरीर ता तीन आयामा-रम्बाई, चौडाई और मोटाइ - से बना है, परंतु उसकी आत्मा चोथे आयाम मे बनी है। महावीर ने आज से लगभग २५०० साल पहले आत्मा का समय कहा था। कई बार विधान नि अनुभूतिया से बहुत बड़ी उपलब्धि वर पाता है, रहस्य में डूब हुए सत उस हजारा सा पहले दस देते है । रूस के वनानिक निरंतर इस तथ्य के निकट पहुँचत जा रह हैं कि समय ही मनुष्य की चतना है । यदि सोच ल कि समय नहीं है जगा म, तो पदाय हा सकता है, पत्थर हो सकता है, लेविन चेतना नहीं हो सकती, क्यावि चेतना की जागति है वह स्थान में नही है समय में है। जब आप अपन घर स यहाँ उठ आते हैं ता जाप का शरार यात्रा करता है और यह याना होती ह स्थान म । आपका जगह बार में अगर पत्थर भी रख दिया गया हाता तो वह भी वार में वटवर यहाँ आ जाता। लेकिन वार में वटे हुए बाप का मन एक और गति भी करता है free दूरी से कोइ गवध नहीं । वहु गति समय म है । हो सकता है आप जब घर महा या कार में वठे हा, तभी आप इस हाल में आ गए हा आपना मन यहाँ था पहुँचा हा । आपकी गाडी अभी घर के मामने सडी है। जब आप कार मद है तो दो गति हा रही है--एक ता आपका शरीर स्थान में यात्रा कर रहा है आर दूसरे आपना मन समय मे यात्रा कर रहा है। चेतना की गति समय म है ।
१ दलिए महाबीर पाणी, १० ००९-५६१ । जनयम में सामायिक प्रतिपा विधिपूर्वक परनी पड़ती है। शुद्ध वस्त्र पहार पठासन, मुहपत्ती, घर, नवकार एव कोई भी धार्मिक पुस्तक पर गुरु के समय जाना मता है और पहना पाता है- 'क्रेमि भने । सामाइय', अर्थात 'हम' म सामादिय परता हूँ।' तदनतर बहना पढना है- 'सावज नाग पच्चरामि', अयान 'म पापमयी प्रवत्ति का प्रति पूर्व परित्याग करता हूँ ।'
सामपि मे पापी प्रवृत्ति का छह प्रकार से स्याग दिया जाता है-- (१) पाप या प्रति म मन से नहीं, (२) पापवाली प्रयत म मन से कराऊँ नहीं, (३) पापयाली प्रति म वचा से पर नहीं, और (६) पापनाला प्रति म पाया से बराऊँ नहीं। श्री पच प्रतिक्रमण सूत्र, १० ३६ ।