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महावीर : परिचय और वाणी
चेतना के तल पर दो नही है हम | दूसरे को बचाये हम या सहानुभूति दिलाएँ तो वह अहिंसा नहीं हो सकती। दूसरे को बचाना भी हिसा ही है । जिस दिन हम ही रह जाते है और वचने को कोई भी नहीं रह जाता, उस दिन शहिमा फलित होती है ।
महावीर की अहिंसा को नही समझा जा सका, क्योकि हम हिंसको ने महावीर की अहिंसा को हिंसा की शब्दावली दे दी । हमने कहा, दूसरे को दुन मत दो | लेकिन ध्यान रहे कि जव तक दूसरा है तब तक दुख जारी रहेगा। दूसरे की मौजूदगी भी हिंसा वन जाती है। आपके लिए ही नहीं, आपको मोजूदगी भी दूसरे के लिए हिंसा बन जाती है ।
महावीर की जिन्दगी की एक बहुत अद्भुत घटना है । वे सन्यास लेना चाहते थे । उन्होने अपनी माँ से पूछा कि में सन्यास ले लूं ? माँ ने उत्तर दिया-- जब तक मैं जिन्दा हूँ तब तक तुम सन्यास नही ले सकते, मुने वडा दुस होगा । महावीर लौट गए । यदि उनकी वृत्ति हिंसक होती तो कहते -- नहीं, मैं सन्यास लेकर ही रहूँगा, ससार तो सब माया-मोह है ! कौन अपना ? कौन पराया ? लेकिन नही, वे चुपचाप लौट गए। माँ मर गई, पिता मर गए । मरघट से लौटने पर महावीर ने अपने बड़े भाई से सन्यास लेने की अनुमति मांगी । माई ने कहा- पागल हो गए हो ? माता-पिता तो छोड़ ही गए, क्या तुम भी हमे अनाथ छोडकर जाना चाहते हो ? महावीर चुप हो गए । फिर उन्होंने सन्यास की बात न की । ऐसे मोक्ष से क्या लाभ जिसमे किसी को दुख देकर जाना पडता हो
?
महावीर रुक गए सही, लेकिन वर्प-दो वर्ष मे घर के लोगो को ऐसा लगने उनकी उपस्थिति अनुपस्थिति जैसी हो गई ।
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लगा कि वे घर में है ही नहीं । उनका होना न होने जैसा हो गया 'हवा की तरह हो गए । तब घर के लोगो ने कहा कि उन्हें रोकना फिजूल है, अब वे जाना चाहे तो जा सकते हैं । और उन्होने कहा कि अब तो बहुत देर हो चुकी है । मै तो जा चुका हूँ !
दूसरो के कारण हम एक झूठा अहकार पैदा करते हैं, जो हम नही है । अहकार हमारा कामचलाऊ अस्तित्व है । हमे अपना पता नही है कि कौन है ? जिसे यह भी पता नही कि मैं कौन हूँ, वह भी कहता है, मैं हूँ । होने का दावा तभी किया जा सकता है जव 'कौन होने' का पता हो। मुझे पता नही कि मैं कौन हूँ ? लेकिन मैं कहता हूँ कि मैं हूँ । यह मेरा 'मैं' कहाँ से आया ? यह मेरे ज्ञान से पैदा नही हुआ, क्योकि जिन्होने भी स्वय को जाना, उन्होने 'मैं' कहना बन्द कर दिया । जिन्होने स्वय को पाया, उन्होने स्वय को खो दिया । जिन्होने स्वय को "नही पाया, वे कहते है 'मैं हूँ' । यह 'मैं' कहाँ से आया ? इसे समाज ने पैदा किया। वे जो दूसरे है, उनके साथ व्यवहार करने के लिए आपको एक शब्द खोज लेना पडा - 'मै'। जैसे हमने