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द्वितीय अध्याय
धम्मो लोगुत्तमो केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो।'
-पचप्रति० सयारा० सू०
(१) महावीर ने कहा है कि जिसे पाना हो उसे देखना गरू करना चाहिए, क्योकि हम उसे ही पा सकते है जिसे हम देखने में समर्थ हो जायें। जिसे हमने देखा नही, उसे पाने का भी कोई उपाय नही । जिसे खोजना हो, उसकी भावना करनी प्रारम्भ कर लेनी चाहिए, क्योकि इस जगत् मे हमे वही मिलता है, जिसके लिए हम अपने हृदय मे जगह बना लेते हैं। यदि स्वय मे अरिहत को निर्मित करना हो, कभी सिद्ध को पाना हो, किसी क्षण स्वय भी केवली वन जाना हो तो उसे देखने, उसकी भावना करने, उसकी आकाक्षा और अभीत्सा की ओर चरण उठाना जरूरी है।
(२) जो मगल है, उसकी कामना स्वाभाविक है । हम वही चाहते है जो मगल है। अरिहत मगल है, सिद्ध मगल है, साहू मगल है । कवलिपन्नत्तो धम्मो मगलम् । जिन्होने स्वय को जाना और पाया, उनके द्वारा निरूपित धर्म मगल है।
अरिहता मगल। सिद्धा मगल ।
साहू मगल ।
केवलिपन्नत्तो धम्मो मगल । इनमे सिर्फ मगल का भाव है। जो भी मगल है, उसका भाव गहन हो जाय तो उसकी आकाक्षा शुरू हो जाती है- आकाक्षा को पैदा नहीं करना पडता । मगल की धारणा को पैदा करना पड़ता है। आकाक्षा मगल की धारणा के पीछे छाया की भॉति चली आती है। धारणा पतजलि योग के आठ अगो मे कीमती अग है जहाँ से अन्तर्यात्रा शुरू होती है । धारणा, ध्यान, समाधि । छठा सूत्र है धारणा, सातवाँ ध्यान और आठवॉ समाधि । मगल की यह धारणा पतजलि योग का छठा सूत्र हे और महावीर के योगसूत्र का पहला । महावीर का मानना यह है कि धारणा से सब शुरू हो जाता है। धारणा जैसे ही हमारे भीतर गहन होती है, वैसे ही हमारी चेतना रूपान्तरित होती है । न केवल हमारी, वरन् उसकी भी जो हमारे पडोस मे
१. केवलोप्ररूपित अर्थात् आत्मज्ञ-कथित धर्म लोकोत्तम है।