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________________ महावीर परिचय और वाणी १०५ आत्मा इसके aff शरीर में विवान को स्वचालित समयता था । किन्तु उसकी यह धारणा नितात गत है | चेतना श्रम कर रही है निवास के लिए और वह जितनी विकसित होती जा रही है शरीर भी उसी अनुपात में निर्वासित होता जाता है । जितना ताव्र विकास चेतना वे तल पर होता है उतना ही तीव्र विकास शरीर के तल पर होना अनिवाय या हो जाता है । लेकिन वह होता है पीछे, पहले नही । वदर का गरीर अगर कभी आदमी का शरीर बनता है तो तभी व किसी बदर की पूर्व आदमी की आत्मा वनन के लिए वदम उठा चुकी होती है । उस आत्मा बी जरूरत के लिए ही पीछे से शरीर भी विकसित होता है । मनुष्य आगे भी गति कर सकता है और ऐसी चेतना विकसित हो सकती है जा मनुष्य स श्रप्टतर शरीरा को जन्म दे सके। इसम कोई कठिनाई नहीं है । रोविन मनुष्य तक आ जाना ही कोई साधारण घटना नही है लेनिम मनुष्य को इसका ख्यान न रहा । वह अपनी जिदगी इस तरह गंवाता है माना वह उस मुफ्त मिल गई हो ! लम्बी प्रत्रियाआ, लम्बी चेष्टाआ लम्य श्रम और लम्बी याना स मनुष्य को चेतना स्थिति उपलध होती है । लेकिन उसन ऐसा मान लिया है कि यह उस मुफ्त मिल गई है ! । मेरी माया है कि एक जन्म में हम जा क्मात है वही दूसरे जन्म में हमारी सहज उपधि होती है। दूसरे जन्म में वह हमें सम्पत्ति की तरह मिलती है और पिछला जन्म हम वसे ही भर जाता है जसे बरे वा बाप वा श्रम भूल जाता है । बाप माता है वटा धाता है क्यावि नट वा जमीरी जन्म से उपलब्ध हुइ हाती है । उसे भी रयाल मा नही होता कि वितन श्रम से वह अमोरी सडी की गई है । चूंकि विनास चेष्टा पर निर्भर है सकल्प और साधना पी चीज है इसलिए इतन बडे प्राणी-जगत में मनुष्या की साया बम है । बढती भी है तो बहुत धीरे धीरे । मैं यह भी कहता हूँ व जम एक ही रहा है। जमा का एक लम्बी यात्रा होती है। हम आज के ही नही है । हम कल भी थ, परमा भी थे । एक अथ म हम सदा ध। कभी पक्षी थे, भी पत्थरमा खनिज कमीइम ग्रह पर भी उस ग्रह पर । म सग । होन व साथ हम एक हैं । अनित्य हमारो प्रतिध्वनि साथी । यह जरुरी रही कि हम महावीर के पास थे एरा नहीं वि महावीर य प्रदेश मे थे लेकिन सन में । यह भी हो सकता है कि हमम से कोई महावीर निफ्ट भी रहा हा उन गांव में भी रहा हा जहाँ से महावार गुजरे थे। जरूरी नहीं हिम उनसे मिलन गए हा । लेकिन हम सत्य थे और न रहेंगे। अगर मुटिन र हा तो हमारा होना न होना घरानर था । जब से हम अमूदिन हान हैं जागत हैं चेतन हान हैं तभी से हमार हो या कोई जय होता है और हम ति चले जात हैं उतना ही हमारा होता प्रगाह और समृद्ध होता जाता है। चलन हात गायद इस
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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