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महावीर : परिचय और वाणी अर्थ मे हमारा होना अभी भी नही हुआ । होने की लम्बी यात्रो मे बहुत वार शरीर वदलने होते हैं। कारण शरीर भणभगुर है, उसकी सीमा है, वह चूक जाता है। असल मे पदार्थ से निर्मित कोई भी वस्तु शाश्वत नही हो सकती। पदार्थ से जो भी निर्मित होगा, वह विखरेगा, जो बनेगा वह मिटेगा। शरीर बनता है, मिटता है। लेकिन इसके पीछे जो जीवन है, वह न बनता है और न मिटता है। वह सदा नएनए वनाव लेता है। पुराने बनाव नष्ट होते है, उनकी जगह नए बनाव आते हैं । यह नया वनाव उसके सस्कार का उमने क्या दिया, क्या भोगा, क्या किया, क्या जाना, इन सबका-इकट्ठा सार है । __ जो शरीर दिखाई पड़ता है, वह हमारा ऊपरी शरीर है। ऐसी ही आकृति का एक और शरीर है जो इस वाहरी शरीर में व्याप्त है। उसे सूक्ष्म गरीर कहे, कर्म गरीर कहे, मनोशरीर कहे, कुछ भी नाम दे-काम चलेगा। वह सूक्ष्म परमाणुओ से निमित गरीर है । जब यह बाहरी गरीर गिर जाता है तब भी वह शरीर कायम रहता है और आत्मा के साथ ही यात्रा करता है। उस शरीर की विशेपता यह है कि आत्मा की जैसी मनोकामना होती है वह वैसा ही आकार ले लेता है । हम जो कर्म करते और फल भोगते है, उनकी सूक्ष्म रेखाएँ उस सूक्ष्म शरीर पर बनती जाती है। इसलिए महावीर इस सूक्ष्म शरीर को कार्मण शरीर कहते है । उनका खयाल था कि हम जो भी जीते और भोगते है, उसके कारण विशेष प्रकार के परमाणु हमारे शरीर से जुड़ जाते है । विज्ञान भी कहता है कि जब आप क्रोध मे होते है तो आपके खून मे एक विशेष प्रकार का जहर छुट जाता है और प्रेम मे वह अमृत से भर उठता है । इस शरीर के छूट जाने पर हमारा सूक्ष्म शरीर ही सूखी रेखाओ की तरह हमारे भोगे हुए जीवन को लेकर नई यात्रा शुरू करता है और वह सूक्ष्म शरीर ही नए शरीर ग्रहण करता है। जिस दिन सूक्ष्म शरीर मर जाता है, उसी दिन व्यक्ति को मोक्ष मिलता है । स्थूल शरीर तो वार-वार मरता है, मगर सूक्ष्म शरीर हर वार नहीं मरता। वह तभी मरता है जब उस शरीर के रहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जब व्यक्ति न कुछ करता है, न भोगता है, न कर्ता बनता है, न किसी कर्म को ऊपर लेता है और न कोई प्रतिक्रिया करता है, जब वह साक्षी मात्र रह जाता है, तव उसका सूक्ष्म शरीर पिघलने लगता है। साक्षी की प्रक्रिया मे सूक्ष्म शरीर वैसे ही पिघलता है जैसे सूरज के निकलने से बर्फ पिघलती है। सूक्ष्म शरीर को गलाना ही तपश्चर्या है।
महावीर को हम महातपस्वी कहते है, परन्तु इसका यह मतलब नही कि उन्होने धूप मे खडा होकर अपने शरीर को सताया था। यह ठीक है कि वे 'काया को मिटानेवाले' थे, किन्तु उस काया का इस बाहरी काया से कोई मतलब नहीं है । उस काया का मतलब है भीतरी काया, जो असली काया है। महावीर भली भांति जानते थे कि यह शरीर कई बार बदला जाता है, लेकिन एक और काया है जो कभी नही बदलती।