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महावीर परिचय और वाणी घह एप ही बार सत्म होती है, वदन्ती नहीं । तो उस भीतरी पाया पिपलाने म एगा हुआ श्रम ही तपश्चया है और उस काया को पिघलाने का प्रक्रिया का नाम ही साक्षीमाव सामायिक या ध्यान है । ऐसा हो सकता है कि पुनज मन हो । हम विराट जीवा के साथ एक हो जायें। एक हाने में हम मिट नहीं जाते । यति मिटते हैं ता बूंद की तरह ताकि सागर की तरह रह जायें। इसलिए महावीर कहत हैं कि यात्गा ही परमात्मा हो जाती है। लोग इसका मतल नही समरे। इसका मतलब यह है मि आत्मा की बद परमात्मा के महासागर म मिरकर एक हो जाती है। उस एपना मे, उस परम अद्वत म परम आनन है, परम शाति है, परम सौन्य है।