________________
२९२
महावीर : परिचय और वाणी (२२-२३ ) अब मैं तप का पहला सूत्र आपसे कहता हूँ-इस शरीर से अपना तादात्म्य छोडे, यह मानना छोडे कि मैं यह शरीर हूँ। अपने को शरीर मानने से ही सारा भोग फैलता है। जिस आदमी ने अपने को भौतिक शरीर समझा, वह दूसरे भौतिक शरीर को भोगने के लिए आतुर हो जाता है। इससे ही सारी काम-वासना पैदा होती है । जिस व्यक्ति ने अपने को यह भौतिक शरीर समझा वह भोजन मे बहुत रसातुर हो जाता है, वह अपनी ही इन्द्रियो के हाथ बिक जाता है। इसलिए तप का पहला सूत्र है कि मै शरीर नही हूँ। शरीर के साथ अपने को तादात्म्य करने की आदत को तोडे । यदि सचमुच इस तादात्म्य को तोडना है तो स्मरण रखे कि इसके किए सकल्प अनिवार्य है। इस सकल्प के बिना गति नही है। और सकल्प से ही तादात्म्य टूट जाता है क्योकि वह सकल्प से ही निर्मित है। जन्म-जन्म के सकल्प का परिणाम है यह मानना कि मै यह शरीर हूँ। इस सकल्प को तोड़े विना तप की यात्रा नही हो सकती। इस सकल्प के साथ भोग की ही यात्रा होगी। यह संकल्प हमने किया ही इसलिए है कि हम भोग की ही यात्रा कर सके ।
(२४) अगर मुझे यह पता हो कि मै यह शरीर नही हूँ तो हाथ के लिए यह भाव नही जगेगा कि मैं इससे किसी सुन्दर शरीर का स्पर्श करूँ। यह हाथ मैं हूँ ही नही । तपस्वी का हाथ डडे की भाँति हो जाता है। डडे से किसी शरीर का स्पर्श किया जाय तो इससे आनन्द नही मिलता। जैसे ही सकल्प टूटा और प्रतीति हुई कि मैं हाथ नही हूँ, तपस्वी का हाथ वैसे ही डडा हो जाता है । उस हाथ' से किसी के सुन्दर चेहरे को छूना डडे से छूना-जैसा हो जाता है।
भोग का सुत्र है कि मैं यह शरीर हूँ, तप का सूत्र है कि मै यह शरीर नही हूँ। भोग का सूत्र 'पॉजिटिव' है, तप का सूत्र नकारात्मक । जब आप कहते है कि मैं शरीर हूँ तो कुछ पकड मे आता है, जब आप यह कहते है कि मै शरीर नही हूँ तो कुछ पकड मे नही आता । यदि तप का यही एक सूत्र हो कि मै यह शरीर नही हूँ तो तप हार जायगा, भोग जीत जायगा। इसलिए तप का दूसरा सूत्र है कि मैं ऊर्जाशरीर हूँ, एनर्जी बॉडी हूँ, प्राण-शरीर हूँ। तो दो काम करे। इस शरीर से तादात्म्य छोडे और प्राण-ऊर्जा के शरीर से तादात्म्य स्थापित करे । वल इस बात पर पड़े कि मैं ऊर्जा-गरीर हूँ। अगर आपका जोर इस वात पर रहा कि यह शरीर मैं नही हूँ तो गलती हो जायगी।
महावीर ने तप के दो रूप कहे है-आन्तरिक तप अथवा अतर तप और बाह्य तप । अन्तर और बाह्य तप के उन्होने छह-छह हिस्से किए हैं। पहले हम बाह्य तप से वात शुरू करेगे, फिर अन्तर तप पर आएँगे। अगर तप की प्रक्रिया खयाल मे आ जाए और सकल्प मे चली जाए तो जीवन उस यात्रा पर निकल जाता है जिस पर निकले विना अमृत का कोई अनुभव नही हो सकता। हम जहाँ हैं वहाँ तो बार