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________________ जेन फकीर बुद्ध के अनुयायी होते है। फिर भी एक जेन फमीर ने अपने अनुयायियो से कहा है कि अगर बुद्ध भी तुम्हारे और मत्य के बीच आ जाये तो एक चांटा मारकर उन्हें अलग कर देना । एक दूसरे जैन पनीर का रहना है कि यदि युद्धा नाम भी मुंह मे आ जाय तो पहले कुल्ला करके मुख माफ कर लेना। वह एक और तो अपने मन्दिर मे बुद्ध की मूर्ति रसता है, फिर दूनरी और लोगो को नमनाता है कि बुद्ध से बचना और कहता है कि इनके लिए मजे बु का आगीर्वाद प्राप्त है। असल मे जो सीटी है वह मार्ग का पत्थर भी बन सकती है और जो पत्थर है उसे सीढी बनाया जा सकता है। सब-कुछ बनानेवाले के ऊपर निर्भर है। जब पुगनी सीढी पत्थर बन जाती है तब उसे मिटाने की बात करनी ही पड़ती है। यह लड़ाई निरन्तर जारी रहेगी। मैं जो आज कह रहा हूँ उने वल गलत कहने की हिम्मत जुटानी ही पडेगी। मुझसे प्रेम करनेवाले किसी व्यक्ति को मेरे खिलाफ लटना ही पडेगा। जो व्यक्ति हमारे लिए मुक्तिदायी सिद्ध हो सकता है उने ही म बधन बना लेते है और जव उसे बधन बना लेते है तब उसमे भी मुक्ति दिलानी पटती है। ऐतिहासिक तथ्यो पर ध्यान केन्द्रित रसनेवाले पुराण और अध्यात्म की साकेतिक भापा समझ नहीं पाते । मिसाल के तौर पर तीर्थकरो की मतियो को ही लो। तुम कोई फर्क नही बता सकते उनमे, सिवाय चिह्नो के। अगर चिह्न अलग कर दिए जायें तो मूर्तियां एक जैसी है। क्या ये चौबीसो तीर्थ कर एक-जैसे रहे होगे ? क्या यह ऐतिहासिक मामला हो सकता है कि इन चौबीस आदमियो की एक-जैसी आँख, एक जैसी नाक, एक जैसे चेहरे, एक जैसे वाल रहे हो ? नहीं, यह ऐतिहामिक नहीं, आन्तरिक तथ्य है। जैसे ही व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है, सब भेद विलीन हो जाते है । हमारे भीतर एक ऐसी जगह है जहाँ नाक, चेहरे आदि मिल जाते हैं। जो लोग एक-जैसे हो गए, उन्हें कैसे वताएँ ? तो हमने मूर्तियाँ एक जैसी बना दी। महावीर का चेहरा कैसा था, यह सवाल ही नही रहा । मतियो मे तीर्थकरो के भीतरी साम्य को प्रकाशित किया गया। जैसे ही चेतना एक तल पर पहुँच गई, सब एक हो गए-उनके चेहरे एक हो गए, अलग-अलग आँखो से झाँकनेवाले चौबीस तीर्थकर एकरूप हो गए। होठ अलग-अलग, लेकिन जो वाणी निकलने लगी, वह एक हो गई, भीतर भिन्नताएँ लुप्त हो गई। मूर्तियों सव शान्त है, स्थिर है। उनमे कोई गति नहीं, कोई कम्पन नही । पत्थर की मूर्तियों चुनी गई, क्योकि पत्थर सबसे ज्यादा ठहरा हुआ तत्त्व है और उस ठहराव मे भी हमने जो रूपरेखा चुनी, वह बिलकुल ठहरी हुई है । हाथ जुड़े हुए है, पैर जुड़े हुए है, पद्मासन लगा है, आँखे आधी वद है । ध्यान रहे, आँखे अगर पूरी वद हो तो खोलनी पड़ेगी, अगर पूरी खुली हो तो बन्द करनी पड़ेगी, क्योकि अति से लौटना ही पड़ता है-अति पर कोई व्हर नही
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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