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महावीर : परिचय और वाणी जाती है और वे वीमार हो जाते है। वेक्सटर ने यह भी सिद्ध किया है कि पीयो मे स्मरण-शक्ति होती है। जब आप अपने गुलाब के पौधे के पास जाकर प्रेम से खडे हो जाते है तब वह कल फिर उसी समय आपकी प्रतीक्षा करता है। वेक्सटर का यह भी कहना है कि जिन पौधो के प्रति हममे प्रेम का भाव होता है वे हमारी ओर वडी पॉजिटिव भावनाएं छोडते है। उसने अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन को सुझाव दिया है कि शीघ्र ही हम मरीजो को खास-खास तरह के पीघो के पास ले जाकर स्वस्थ करने में समर्थ हो सकेगे। पीवो के पास अपना हृदय है। माना कि वे अशिक्षित है, लेकिन उनके पास हृदय है । आदमी बहुत शिक्षित होता चला जाता है, लेकिन हृदय खोता चला जाता है।
(१०) धर्म शब्द का जैन-परम्परा मे वह अर्थ नहीं है जो अग्नेजी के 'रिलीजन' का है या उर्दू के 'मजहब' का। मत, पथ या क्रीड को मजहब कहते है और जोडने को 'रिलीजन' । अर्थात् अग्रेजी के 'रिलीजन' शब्द का अर्थ करीब-करीव वही है जो योग का है। वह जिस सूत्र से बना है वह है 'रिलिगेयर' जिसका अर्थ होता है जोड़नाआदमी को परमात्मा से जोडना । लेकिन जैन-चिन्तन परमात्मा के लिए जगह ही नही रखता । इसलिए आप यह जानकर हैरान होगे कि जैन योग का अर्थ अच्छा नही मानते । वे कहते हैं कि केवली अयोगी होता है, योगी नही । महावीर को कुछ भूल से भरे लोग अपनी नासमझी मे महायोगी कहते है। महावीर कहते हैं कि धर्म का लक्ष्य जोडना नही है किसी से, जो गलत है उससे ट्टना है, अलग होना है-अयोग, ससार से अयोग । योग बल देता है परमात्मा से मिलन पर, स्वरूप की उपलब्धि पर। किन्तु महावीर कहते है कि स्वरूप तो उपलब्ध ही है, जो हमे पाना है, वह हमे मिला ही हुआ है । सिर्फ हम गलत चीजो से चिपके खड़े है, इसलिए दिखाई नही पडता। जरूरत है कि गलत को छोड दे, अयुक्त हो जायं । इसलिए जैन-परम्परा मे अयोग का वही मूल्य है जो हिन्दू परम्परा मे योग का है। महावीर कहते है कि वस्तु का जो स्वभाव है, 'नेचर' है, वही धर्म है। महावीर की दृष्टि मे धर्म का वही अर्थ है जो लाओत्से के 'ताओ' का है।
(११) वस्तु का जो स्वभाव है, जो उसकी स्वय की परिणति है, वही धर्म है । अगर कोई व्यक्ति किसी से प्रभावित हुए विना सहज आचरण कर पाए तो वह धर्म को उपलब्ध हो जाता है। इसलिए प्रभाव को महावीर अच्छी बात नही मानते। किसी से भी प्रभावित होना बंधना है। पूर्णतया अप्रभावित हो जाना ही स्वय हो जाना है। इस निजता को-स्वय होने को-महावीर धर्म कहते है । जव कोई व्यक्ति केवल ज्ञान-मात्र या चेतना-मात्र रह जाता है, तब वह जैसे जीता है. वही धर्म है। __ महावीर कहते है कि जब कोई धुआं नही है तव अग्नि अपने धर्म मे है, जब