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महापोर परिचय और वाणी
२३५ चेतना विलकुल शुद्ध होती है और पदार्थ का कोई प्रभाव नहा होता और न शरीर पा पता होता है, तव चेमना अपने घम म हाती है । महावीर कहते हैं कि प्रत्यक पा अपना धम होता है। अग्नि का अपना है जल का अपना है, पदाथ का अपना है। अपने घम मे शुद्ध हो जाना आनद है, अशुद्ध रहना दुस है। अपने स्वभाव म चले जाना धार्मिक हा जाना है। वे कहत है
अरिहता लोगुत्तमा । सिद्धा लोगुत्तमा । माहू रागुत्तमा ।
देवरिपनत्ता धम्मा रोगत्तमो । मरिहत उत्तम है लोर म, सिद्ध उत्तम है लोक म, साघु उत्तम है लाप म, वेवरीप्रस्पित घम उत्तम है लक म । रेफिन मगल कह दन के बाद उत्तम पहने यी क्या जारत है ? कारण है हमारे भीतर। हम इतन नासमझ है दि जो उत्तम नहीं है, उसे भी हम मगलम्प मान सकते है। हमारी बासनाएँ एसी हैं कि जो याग म निकृष्ट है वे उसी की ओर बहती है।
रामप्ण यहा करते थे कि चील मावाश म मा उठे तो यह मत समझना कि उसका ध्यान आयाम है। हमारी वामनाए चील की तरह नीच दगती हैं। उनका ध्यान पचरा पर या घर म पडे मास पर रगा होता है।
महावीर के उत्तम शद या मथ स्पष्ट है । मरिहत उत्तम हैं। ये जीवा गिसर हैं, श्रेष्ठ हैं पाने और चाहने योग्य हैं।
(१२) जय महावीर कहते हैं 'मरिहता लोगुत्तमा , तय है। इसे समझ हा पात। उहें क्या पता कि अरिहत कौन हैं सिद्ध और साधु यौन है ? 4 मायूरी म रहें मान रेत है यद्यपि अप7 भीतर उहान सी पाइ अनुभूति नहा जानी जसी अरिहतो, मिता और साघुमा वा उपलब्ध हाता है। अपनी मजवरी कोही व घम पी समा देत रहे हैं। जन धम म पटा हो जाना उसका मजबूरी है इसम उन कारय रही है। पयुपण मी उनी मजबूरी है उनका मदिर जागा उपवास करना प्रत परना-रार मजवरी है। उनम यही वाद स्पुरण, पोइ सहज भाव नहीं होता। व मदिर की ओर अपा परा या पसीटें जाते हैं। मन्दिर जाना, माना एक मजदूरी है काम है। प्रपुरता नहा हाती उन परणा म । वमा नत्य भी नहीं होता जमा सिनेमात जाम होना है।
(१३) हो साता है नमोगर बापरे भाम-पाम पढ़ा जा रहा हो नि आपरे तर उारा यो प्रवेश नहीं हो पाता। जिही उमरे प्रवासी तयारा हा सी, यभार साचन हा पि क्षण म वामा प्रवेश को पापमा ता के भरम हैं हना