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महावीर : परिचय और वाणी
दिखाई पडता है कि आदमी अपने को दुस दे रहा है, लेकिन वह दुख इसलिए दे रहा है कि सुख मिले। पहले वह मुख दे रहा था ताकि मुन मिले, अब दुख दे रहा है ताकि सुख मिले । आकाक्षा का केन्द्र अव मी सुख ही है, इसलिए इस मिलेगा | सच बात तो यह है - इसे न मूले-- कि दुख चाहा ही नही जा सकता । हाँ, अगर कभी कोई दुख चाहता है तो सुख के लिए हो । लेकिन वह चाह नुम की ही है । दुख चाहा नही जा सकता । यह असम्भव है । जिसने कुस के नाथ चाह को जोडकर तप बनाया, वह तपस्वी नही हो सकता और न उनका तप तप होता है ।
( ४ ) आपने सुना होगा कि यूरप मे ईसाई फकीरो का एक सम्प्रदाय था जिसके सदस्य अपने को कोडा मार-मारकर लहूलुहान कर लेते थे । लोग उनकी तपश्च देख चकित रह जाते थे । इस सम्प्रदाय की मान्यता थी कि जब भी काम-वामना उठे, तव अपने को कोडा मारो। धीरे-धीरे कोडा मारनेवालो को पता चला कि कोडा मारने मे काम-वासना का ही आनन्द आता है । जब उनके शरीर मे लहू वहता, तब उनके चेहरे पर ऐसा मग्न भाव होता जो केवल सम्भोग रत जोडो मे ही देखा जा सकता है । इसलिए लोग तो उनकी तपश्चर्या से प्रभावित होकर उनके चरण छूते और वे तपस्वी स्वय काम-वासना का आनन्द लेते ।
लेकिन तप का यह अर्थ नही है । तप दुखवाद से उत्पन्न नही होता । तपस्वी कोडे मारकर भी सुख ही चाहता है, दुख नही । इसलिए यह न भूलें कि जब भी कुछ चाहा जाता है तो सुख ही । भूसे मरने ओर कांटे पर लेटने मे भी मजा आ सकता है, धूप मे खडे होने मे भी मजा आ सकता है, बातें एक बार आपके भीतर की किसी वासना से कोई दुख सयुक्त हो जाय । आदमी अपने को दुख इसलिए देता है कि वह किसी वासना से मुक्त होना चाहता है । जब हम शरीर से मुक्त होना चाहते है, इसकी सजावट की कामना से मुक्त होना चाहते है, तब या तो लगे खडे हो जाते हैं या शरीर मे राख लपेटते है अथवा उसे कुरूप कर लेते हैं । लेकिन हमे पता नही कि राख लपेटना या नग्न हो जाना शरीर से ही सम्बन्धित है | यह भी सजावट है । यह देखकर आप चकित होंगे कि राख लपेटने वाले साधु भी एक छोटा आईना रखते है । राख ही लपेटना है तो आईने का क्या प्रयोजन ? लेकिन आदमी अद्भुत है । उसके लिए राख लपेटना भी सजावट और शृगार है । शरीर को सुन्दर बनानेवाले के लिए ही आईने की जरूरत नही होती, शरीर को कुरूप बनाने - वाले को भी आईने की जरूरत पड जाती है |
(५) शरीर को सतानेवाले की दृष्टि हमेशा गरीर पर लगी होती है । चूंकि शरीर से सुख नही मिलता, इसलिए इसे सताने की चेष्टाएँ होती हैं। शरीर को सताना कुछ वैसा ही है जैसा उस कलम को गाली देना, या जमीन पर पटककर तोड देना, जो ठीक न चले । कलम को तोड देने से कलम का कुछ भी नही टूटता, आपका