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अष्टम अध्याय
तपश्चर्या
एव तव तु दुविह, जे सम्म आयरे मुणी | सो सिप्प मव्वससारा, दिप्पमुच्चड पटियो |"
-उत्त० अ० ३०, गा० ३७
अहिमा है आत्मा, सयम है प्राण प है शरीर । स्वभावत जहिंसा और सयम सम्बध मे भू हुई है गलत व्याख्याएं हुई है । लेकिन य भूलें इनस जपरिचय के कारण हुए हैं । तप के सम्म म जा गलत व्याख्याएँ दुइ हैं वे हमारी परिचय की है। तप से हम परिचित हैं- -तप मे हम जमानी से परिचित हो जाते हैं । मतपत जान के लिए हम अपने को बदलना ही नहीं पडा । हम जस ह वस ही हम तप में प्रवेश कर जाते हैं। हम जम हैं वैम हो अगर तप म चले जाएँ तो तप हम बदल नहीं पाता, हम तप को ही बदर करते हैं।
( १ ) तप की गलत व्याख्याए निरतर होती रही है । इम समझ लेनी चाहिए हिमठी व्यायाम की आर म उठा सकें। हम भोग से परिचित हैं यानी उसकी आमाक्षास | गुप की मभी आकाक्षा दुय में जाती है। इससे स्वभावत एक भूल पदा होता है और वह यह है कि यदि हम सु को माग परख दुख में पहुँच जीत है तो क्या दुस की मांग रखे गुप में ही पहुँच सक्त ? यदि सुम की
क्षा दुस ला सकती है ता क्या न हम दुस को जावाया करें और सुख पा लें । इमलिए तपस्या की जा पहले मूल है, वह उसके भागी चित्त न निवरती है। भागो चित्त वा अनुभव यही है कि सुप कुसम ले जाता है। हम विपरीत करें तामुस भ पहुँच सक्त है । ममी अपने वा सुमदन की वाणिण करत हैं हम अपा का दुस दन शिकरें। यदि मुसको पानिता है ता दु गी। तपस्या एम ही सीधे गणित में विश्वास करता है। माघी पहा है और जिन्गा का गणित इतना गाफ नहीं है । (२३) दुग की आशा मुग नहा से आती या एसी आना के भू मी ही है। सुम को कोई बाराक्षा पहा हा सती। ऊपर से
को वाणि मुस ला रवि जिदगी इतनी
" जो पडित, मुनि बाह्य और आग्यतर, दानों प्रकार के तपों का सम्पय आचरण करता है, यह समस्त ससार से ही मुक्त हो जाता है ।