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महावीर : परिचय और वाणी कियत का भाव विदा हो जाता है। पति-पत्नी अपनी जगह है, लेकिन वीच से मालकियत चली गई । पति पति नही रह जाता, सिर्फ मित्र रह जाता है। पत्नी पत्नी नही रह जाती, सहचरी बन जाती है। अपरिग्रह का मतलब है हमारे और व्यक्तियो के वीच ही नहीं, हमारे और वस्तुओ के बीच के सम्बन्ध का रूपान्तरण । मालकियत गिर गई और अपरिग्रह फलित हो गया । इसलिए अपरिग्रह त्याग से ज्यादा कठिन वात है। वैराग्य बडी सरल वात है, क्योकि वह दूसरी अति है और मन का पेडुलम दूसरी अति पर बहुत जल्द जा सकता है । जो आदमी बहुत ज्यादा खाना खाता है उससे उपवास कराना सदा आसान है। जो आदमी स्त्रियो के पीछे पागल है उसे ब्रह्मचर्य का व्रत दिलवाना बहुत आसान है। जो आदमी बहुत क्रोधी है, उसे अक्रोध की कसम दिलवाना सदा आसान है। लेकिन, ध्यान रहे, अक्रोध का यह व्रत भी क्रोधी आदमी ही ले रहा है, इसलिए जल्द ले रहा है । अगर कम क्रोधी होता तो सोचकर लेता। अगर और कम क्रोधी होता तो शायद लेता ही नहीं, क्योकि व्रत लेने के लिए भी क्रोध का होना जरूरी है।
अपरिग्रह जब फलित होता है तव मध्य मे फलित होता है । आप अपरिग्रह की विलकुल चिन्ता न करे। आप चिन्ता करे परिग्रह को समझने की। परिग्रह को छोडने की भी चिन्ता न करे, चिन्ता करे उसे समझने की। आप देखेंगे कि सब मिल जाय फिर भी कुछ नहीं मिलता, हम खाली के खाली ही रह जाते है। और स्मरण रखे कि जिन्हे हम बांधते है उनसे ही हम बँध भी जाते है और उनके गुलाम हो जाते है। अपरिग्रह वहाँ है जहाँ न त्याग है, न भोग, न वस्तुओ की पकड और न वस्तुओ का त्याग ।