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अष्टम अध्याय
निगोद और अन्तर्यात्रा सिद्धाण वुद्धाण पार-गयाण परपर-गयाण । लोअग्गमुवगयाण, नमो सया सब-सिद्धाणं ।'
--'सिद्वाण वुद्धाण'-मत्र (सिद्धाण-ई)
निगोद की धारणा महावीर की मौलिक धारणा है। इसका अर्थ है-बन्धन मे प्रमुप्त आत्माओ का लोक । निगोद प्रथम है, मोक्ष अन्त मे और मंमार मध्य मे । निगोद से उठकर आत्मा ससार मे आती है, मसार से उठकर मोक्ष मे। मोक्ष है मुक्ति, निगोद है पूर्ण अमुक्ति जहाँ बिलकुल अन्धकार है, जहाँ गहरी निद्रा है-यानी जहाँ इमका भी होश नही है कि बन्धन है। निगोद मछित आत्माओ का वह लोक है जहाँ से आत्माएं धीरे-धीरे उठती है और इस मध्यम लोक मे आती हैं। ससार है स्वप्न, निगोद है निद्रा और मोक्ष है जागृति । अब प्रश्न उठता है कि आत्माएँ कहाँ से आती है ? महावीर यह नहीं मानते कि आत्माओ का सृजन होता है। आत्माएँ सदा से है। परन्तु वे आती कहाँ से है ? महावीर कहते है कि इस जगत् मे ऐसा कुछ भी नहीं है जो अनन्त न हो। कोई भी चीज सख्या मे हो नहीं सकती, क्योकि अगर चीजे सख्या मे हो तो फिर जगत् असीम नही हो सकेगा-और जगत् सीमित नही है। निगोद का अर्थ है-अनन्त आत्माएँ जहाँ प्रसुप्त है और वह भी अनन्त काल से । आत्माएँ एक-एककर उठती है और ससार मे प्रवेश करती है, फिर ससार से मुक्त होती चली जाती है और दूसरे लोक मे पहुँचती है जहाँ वे परम चैतन्य को उपलब्ध हो जाती है। प्रश्न है कि क्या कभी ऐसा भी होगा कि सभी आत्माएँ हो, जायंगी ? नही ऐसा कभी होने को नही, कारण कि आत्माएँ अनन्त है । 'अनन्त' शब्द हमारे खयाल मे नही आता, क्योकि हमारा मस्तिष्क अनन्त की धारणा को नही पकड पाता । अनन्त का मतलव है जहाँ सख्या होती ही नही । लेकिन असंख्य का मतलब अनन्त नही होता ।
१. सिद्धिपद को प्राप्त किए हए, सर्वज्ञ, संसार का पार प्राप्त किए हए, परम्परा से सिद्ध वने हुए, और लोक के अग्रभाग पर गए हए, ऐसे सर्वसिद्ध भगवन्तो के लिए सदा नमस्कार हो।