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महावीर परिचय और वाणी बनाता है और न शनु । वह अपनी ही जिदगी को दूर खडा होकर दसने लगता है, सुद प्रप्टा हो जाता है, राग-द्वेप में बाहर हो जाता है। वर्ता हम गा राग-द्वेप स पिरा हाता है जकर्ता साक्षी बन जाता है।
महावीर ससार या शरीर के प्रति द्वेष नहीं सिखाते । लकिन जिहाने महावीर का नहा समया व जर एसी ही शिक्षा देत हैं। गरीर से ऐसा प्रेम करनवाला आदमी मुश्किल से पदा हुमा होगा । ससार के प्रति न तो वेप सिखाते हैं और न राग करन की सलाह देते हैं, क्याकि वे तो वहते ही यह है कि द्वप बांध लेता है, प्रेम वाध रता है। वे द्वेप सिखा ही नहीं सकते। व सिखात हैं कि अपने द्वेप अपने राग, अपनी पणा अपन प्रेम-इन सबके प्रति जाग जाआ। इहें जागकर दख लो। जिस दिन इहें पूरी तरह देख लोगे उस दिन पाजागे कि राग विराग, मित्रता गनुता एक ही चीज के दो छोर हैं एक ही सिक्के के दो पहलू है। महावीर वाएँ जाना नहीं सिखा सक्त क्यानि व जानते हैं कि जो वाएं जायगा उसे दाएँ जाना पडेगा ! वे एक ही बात सिसा सकते हैं विन तुम बाएं जाओ न दाए-ठहर जाओ बीच में खडे हो जाओ। न उप रह और न घणा न राग और न विराग। ध्यातव्य है कि महावीर विरागी नहीं हैं । वस्तुत जो विरागी उनके पीछे पड़े हुए है, वे गल्ती म पडे हुए हैं। महावीर को उन विरागिया से कुछ लेना-देना नहीं है, क्याकि विरागी हुए कि उहाने राग अजित करना शुरू कर दिया ! महावीर कहत हैं कि प्रेम द्वेष दोनो को देख लो। दाना को पहचान ला । फिर तुम जपने म आ जाओगे। तीन दिनाएँ हैं।' एक प्रेम की मार ले जाती है दूसरी घणा की ओर। जो इन हद्वा से बच जाता है वह निषोण के तीसरे विदु पर आ जाता है जहा जाना आना नहीं है सिफ ठहर जाना है। वहाँ प्रना स्थिर हो जाती है। यहाँ ठहर पर हम देख पाते हैं। यगर राग और द्वेप को देखना है ता पिसी की और न जाएँ। ठहरकर देख में कि राग क्या है द्वेप क्या है मोघ क्या है।
यह केवल ध्यान की भूमिका है। जस ही कोई स्वय म ठहर जाता है वसे ही वह उस द्वार पर पहुँच जाता है जहा स नान की शुरआत होती है। लेकिन स्वयम खडा हाना पहला विदु है । फिर वहा से यात्रा भीतर की मार हो सकती है। राग उप म होत का अथ है स्वय के बाहर हाना कही और होना । जा आदमो धन इक्टठा परने म लगा है उसका ध्यान धन पर हागा और जा धन के त्याग म लगा है उसका मी घ्यान वन पर। धन पर ही दष्टि होगी उन दोना की।