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महावीर : परिचय और वाणी
आपके क्रोध को बाहर निकाल लेता है, बस वह निमित्त बनता है । तो निमित्त पर इतना क्रोध क्यो ? वाल्टी को भला गाली देगे कि उसमे पानी है ? पानी तो कुएँ से ही आता है, वाल्टी तो पानी को लेकर मिर्फ बाहर दिखा देती है । नलिए विनयपूर्ण आदमी उसे धन्यवाद देगा जिसने गाली दी, क्योंकि अगर वह गाली न देता तो वह आदमी अपने भीतर के क्रोध के दर्शन न करता । गाली देनेवाला वात्टी वन गया। उसने क्रोध को बाहर निकालकर उनके दर्शन करा दिए । इसीलिए कवीर ने कहा है- ' निन्दक नियरे रासिए, आँगन फुटी छवाय ।'
महावीर कहते हैं कि दूसरा अपने कर्मों की श्रृंखला में नया कर्म करता है, तुमने उसका कोई सम्बन्ध नही । इतना ही सम्बन्ध है कि तुम मौके पर उपस्थित थे और उसके भीतर विस्फोट के लिए निमित्त वने । इस वात को दूसरी तरह भी सोच लेना है कि तुम जव किसी के लिए विस्फोट करते हो तब वह भी निमित्त ही हैं। तुम भी अपनी शृखला मे जीते और चलते हो | यह न भूलो कि विनय वडी वैज्ञानिक प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया मे दोप दूसरे मे नही होता। दूसरा मेरे दुख का कारण नही है । दूसरा श्रेष्ठ अथवा अश्रेष्ठ नही है। दूसरे से मैं कोई तुलना नही करता । दूसरे पर मैं कोई शर्त नही वॉचता । मैं जीवन को वेगर्त सम्मान देता हूँ । प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म से चल रहा हे । अगर मुझसे कोई भूल होती है तो मैं उसे अपने भीतर अपने कर्मों की श्रृंखला मे खोजूं। अगर दूसरे से कोई भूल होती है तो यह उसका काम है, इससे मेरा कोई सम्बन्ध नही । वही इसका फल पाएगा । यदि नहीं पाता तो यह भी उसकी ही बात है । यह मेरा काम नही हे । महावीर इतना जरूर कहते है कि अगर कोई मेरी छाती मे छुरा भोकता है, तो इससे मेरा इतना सम्बन्ध हो सकता है कि अपनी पिछली यात्रा मे पैने यह तैयारी करवाई हो कि मेरी छाती मे कोई छुरा भोके । छुरे का मेरी छाती मे जाना मेरे पिछले कर्मों की कुछ तैयारी होगी । वस, उससे मेरा इतना ही सम्बन्ध है। लेकिन उस आदमी के मेरी छाती मे छुरा भोकने से मेरा कोई सम्बन्ध नही । इससे उसकी अपनी अन्तर्यात्रा का सम्बन्ध है । हम सबके सब समानान्तर दौड रहे है और प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर से जी रहा है। इसलिए जब जब हम अपने से दूसरे की धारा को जोड लेते है तब-तब कष्ट शुरू होता है और अविनय आकार ले लेती है ।
विनय केवल इस बात की सूचना है कि अब मैं अपने से किसी को जोडता नही । इसलिए महावीर ने विनय को अन्तर तप कहा है । स्वय को दूसरे से तोड़ लेना ही विनय है । मैं ही अपना नर्क हूँ, मैं ही अपना स्वर्ग और मैं ही अपनी मुक्ति हूँ । मेरे अतिरिक्त कोई निर्णायक नही है मेरे लिए। ऐसे भाव के जगते ही एक विनम्रता का भाव पैदा होता है । महावीर यह भी नही कहते कि गुरुजनो को, अपने वड़ो को, माता-पिता को आदर न दो । मै भी नही कहता कि उन्हे आदर न दो ।