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महावीर परिचय और वाणी
याइ क्षमा करेगा नहीं, कोई है ही नहीं। इसलिए चिरलाना मत । इस घोपणा से कुछ भी न होगा। दया की मिक्षा मत मागना, क्योकि कोई दया नहीं हो सकती। काइ दया परनवाला नहा हैं सरिए प्रायश्चित्त दूस के समक्ष नही, अपा ही समक्ष हाता है।
महावीर पहा आदमी हैं इस पथ्वी पर जिहाने कहा कि स्वग और नव मनो दशाए हैं, माड की स्टेटस हैं, चित दशाएं हैं। मोक्ष काई स्थान नहा है। इसलिए महावीर ने कहा है कि मोल स्थान के बाहर है वह सिफ एक जवस्था है। जहा हम बडे है वही नक है। इस नक की प्रताति जितनी स्पष्ट हो जाए, उतने ही आप प्रायश्चित्त म उतरेंगे। अगर जाप प्रायश्चित्त नहा कर सकत तो अतर तप म आपका प्रवरा नहा हा मक्ता। यह निश्चित जानिए क्याकि प्रायश्चित्त ही इस तप वा.
(२) विनय के पदा होने की सम्भावना प्रायश्चित्त के बाद ही है, क्याकि जर तर मन दूसर के दाप दग्नता रहता है, तब तब विनय पदा नही हो सकती। विनय ता तमो पदा हा सक्ती ह जव अहकार दूमरा के दोष दसकर अपने को भरना बन्द पर द। सहकार का भोजन है इमरा व दोप देखना। असल म दूसरा या दोप हम
लते ही इमरिए हैं कि दूसरा वा दोप जितना ही दियाई पडता है हम उता ही निर्दोप मालूम पडत हैं। दूसरे की निदा म रस मालूम होता है। स्तुति मे पीडा मालूम हाती है । इसलिए अगर मजबूर होकर आपका क्सिी की स्तुति करनी पड़ती है ना आप बहुत शीघ्र कहा जाकर उसको निदा करके वैव बरे म वरावर कर रत हैं। जब तक सतुलन न आ जाए तब तक आपके मन यो चन नहीं पड़ता। जब काई मिनी की हत्या मा कर देता है तब भी यह नहीं मानता कि मैं अपराधी हूँ। वह मानता ह कि उम आदमी ऐसा काम ही किया था कि हत्या करनी पडी दापी वही है मैं पहा । मुराद ही दूसर की तरफ तीर बनकर चलता है। वह कभी अपनी हातीही नहा । जब अपनी नहा हाती तो विनय का प्रश्न ही नहा उटता। इरिए महावीर प्रायश्चित्त को पहला मतर तप यहा और इस बात पर बल पिया कि पहले यह जान रेना जररी है विन पेवल मेर पृय गरत है, बल्कि मैं मा--मैं ही–रत है। "मरा तीर सब बदर गए, रग राय बदल गए । व दूसर का तरपन जाकर अपनी तरफ मुड गए। एसी स्थिति म विनय या साधा जा सरता है।
महावीर ने विनय मी जगह निर-अहबारिता' नही यही । पहा विनय, फ्याकि निग्हार नगारात्मा है और उसम अहसार की स्वोति है अहसार यो इनर करने के लिए ही उसका स्वागार है । विराय है 'पाजिटिन । महावीर विधायर पर जार दे रहे हैं कि आपने भीतर यह अवस्था नाम जिसम दूसरा दापी न जान पहे।