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महावीर : परिचय और वाणी
प्रायश्चित्त बहुत अद्भुत घटना है। पञ्चात्ताप देस लेता है कि कर्म की कोई भूल है, प्रायश्चित्त देखता है कि मैं गलत हूँ, कर्म नही, क्योंकि कर्म क्या गलत होगा ? गलत आदमी से गलत कर्म निकलते है-कर्म कभी गलत नहीं होते। उनलिए पश्चात्ताप से सजग हो। पश्चात्ताप आपको बदलेगा नहीं, बदलने का पोसा देगा। प्रायश्चित्त को महावीर ने अन्तर तप का पहला हिस्सा इसी कारण बताया कि वही व्यक्ति अन्तर्यात्रा पर निकल सकता है जो कर्म की गलती छोटकर वय की गलती देखना शुरू करे । देखिए, तीन तरह के लोग होते हैं। एक व लाग है जो दूसरो की गलती देखते है, दूसरे वे है जो कर्म की गलता दखते है और तीसरे वे है जो स्वयं की गलती पर ही ध्यान देत है। जो दूसरो को गलती देखते है, वे तो पश्चात्ताप भी नहीं करते। जो कर्म की गलती देखते हैं, वे पश्चात्ताप करते हैं और जो स्वय की गलती देखते है, वे प्रायश्चित्त मे उतरते है । लन्तर्याना के पथिक को यह समझ लेना होगा कि दूसरा कभी भी गलत नहीं होता। वह गलत होता है तो स्वय के लिए। आप गलत होते हैं स्वय के लिए। दूसरों के लिए आप गलत नहीं हो सकते। दूसरा गलत नहीं है, इस स्मरण से ही अन्तर्यात्रा गुरु होती है । दूसरा गलत है, यह दृष्टि ही गलत है। प्रायश्चित्त तव शुरू होता है जब मैं मानता हूँ कि मै गलत हूँ। सच तो यह है कि जब तक मैं हूँ तब तक गलत होऊँगा ही। मेरा होना.ही मेरी गलती है। जब तक मैं नहीं न हो जाऊ, तव तक प्रायश्चित्त फलित नही होगा । और जिस दिन मै नहीं हो जाता हूँ-शून्यवत् हो जाता हूँ-- उसी दिन मेरी चेतना रूपान्तरित हो जाती है और नए लोक में प्रवेश करती है ।
प्रायश्चित्त जाग्रत चेतना का लक्षण है, पश्चात्ताप सोई हुई चेतना का लक्षण । प्रायश्चित्त मे वही उतर सकता है जो अपने को झकझोर कर पूछ सके कि इत्त जिन्दगी का मतलब क्या है ? यह सुबह से शाम तक का चक्कर, क्रोध और क्षमा का चक्कर, प्रेम और घृणा का चक्कर-~-यह सब क्या है ? धन, यश, अहकार, पद, मर्यादा-यह सब क्या है ? मैं कहता है कि प्रायश्चित्त जागरण का सकल्प है, पश्चात्ताप नीद मे की गई गलतियो की क्षमा-याचना है। प्रायश्चित्त सोये व्यक्तित्व को जगाने का निर्णय है, इस बात का बोध हे कि मैने आज तक जो भी किया, वह गलत था, क्योकि मै गलत हूँ। अब मै अपने को बदलता हूँ, कर्मों को नही । तथ्य की स्वीकृति प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त मे स्वीकार है, पूर्ण स्वीकार है। 'कही कोई चुनाव नही । मै चोर हूँ तो चोर हूँ, वेईमान हूँ तो वेईमान हूँ। इसलिए जहाँ पञ्चात्ताप दूसरो के सामने प्रकट करना पड़ता है, वहाँ प्रायश्चित्त स्वय के समक्ष । और ध्यान रहे कि महावीर प्रायश्चित्त को इतना मूल्य दे पाए क्योकि उन्होने परमात्मा को कोई जगह नही दी, नहीं तो पश्चात्ताप ही रह जाता। तुम ही हो, और कोई नहीं। कोई आकाश मे सुननेवाला नही, जिससे तुम कहो कि मेरे पाप क्षमा कर देना।