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________________ एकादश अध्याय महावीर की दृष्टि महावीर का भोग आयातुले पयासु । -सू० श्रु० १, अ० ११, गा० ३ 'दृष्टि शब् 'दशन' का पर्याय नहीं है। जहाँ दप्टि एकागी, अधूरी और सड स होती है वही दशन सदा समग्न होता है। दान कभी भी अयूरा नहा होता। जर तक मरे चित्त म विचार ह तब तब मेरे पास दृष्टि होगी, दान नहीं, फ्याकि म अपने विचार के चश्मे से देगा। मरे विचार का जा रग होगा वही उस चीज पर पडायगा जिसे म देरगा। दशन हागा तब जब म निविचार हा जाऊंगा। विचार दृष्टि तक ले जाती है और निर्विचार दशन तव । इस सम्बघ म एव वात और भी समझ रेनी चाहिए। दशन क्तिना भी समन क्या न हो--ममम हागा ही-- गर पाई उसे प्रकट करा जायगा, तब फिर दृष्टि गुरू हो जायगी, क्योंकि दान को प्रगट परने के लिए विचार का उपयोग करना पड़ेगा। विचार चीजा का ताडकर दरता है, परतु सत्य में सभी चीजें जुडी हुई ह । अगर हम विचार स देसन जायगे ता Tम अलग दीमेगा और मृत्यु जलग । बम और मत्यु पो विचार म गाडना अत्यत पठिन है ययापि जम मृत्यु पी उलटी चीा है। लेविस वस्तुत जम और मरण एक ही चीज क दो छोर ह । जा जम ग गुरू हाता है वही मत्यु पर विटा हो जाता है । एक ही यात्रा का पहला विदु जम है और अतिम विन्दु मृत्यु । ___महागीर, युद्ध, कृष्ण और प्राइस्ट को जो अनुभूति हुई थी वह रामग्र है, रेपिन जन व उस ममि यक्त करन ह तब वह समग्र नहा रह जाती-नय यह एक दष्टि र जाती है । गोरिए जो प्रक्ट दप्टियां हैं, उनग विरोध पड़ जाता है। दान भ याई विरोध नही है लेकिन प्रस्ट दृष्टि म विराध है। साहरणाय आप मार हम श्रानगर आए । हमारे और बापरे लिए ही नहा, राना के लिए पीनगर एव हा है। फिर हम दाना श्रीनगर से रोट । फाई हमरा पूछता है-आपने यहाँ क्या दार इगा उत्तर ग मैं ा परगा यह उसम भिन्न हागा जो आप रहेंगे। हा समता १ प्राणिपो ए प्रति आरमतुल्य भाव रखो ।
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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