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पंचम अध्याय
कर्मवाद राजीवाण पम्म तु, सगहे धन्दिसागय । सब्बेसु वि पएमैनु, मव्य सण वज्यग ।।
--उत्त० अ० ३३ गा० १८
म पे सम्बप म बहुत बुध समझा जारी है, क्यापि जितनी नासमझी इस वान के सम्बध में है उती गायद पिसी बात से सम्बषम नहीं। यह देसपर आश्चय हाता है कि किसी सत्य चितन वे आमपास बसत्य की कितनी दीवारें पड़ी हो रापती हैं । साधारणत पमवाद ऐसा रहता हुआ प्रतात होता है कि जो हमने पिया है, उसबा पर हम नागना पडेगा । हमारे यम और हमारे मा म एप पनि वायकाय-धारण सम्बध है। यह विरपुल सत्य है कि जाम परत हैं उससे अयथा हम नही भागत-भाग भी हो म । पम भोग पी तपारी है। असर म, बम भाग या प्रारम्भिव वीर है । पिर वही वी7 माग म वक्ष बन जाता है।
यमवाद या जो सिद्धात प्रचलित है, उसम ठीक वात या भी ढग से रखा गया है कि यह विरकुल गलत हो गई है। उस सिद्धात म ऐसी बात न माएम पिन वारणा से प्रविष्ट हो गई है कि कम ता हम अभी करेंगे आर मोगेंगे अगर जाम म । पाय-वारण बोच अतराल नहा होता- अतरार हो ही नहीं सकता। अगर अन्तराल आ जाय तो काय-कारण विच्दिन हो जायेंगे उनपा सम्बय टूट जायगा । आग म में अभी हाथ डालू बोर जर अगले जम मे---यह समय के बाहर की बात होगी। रेविन इस तरह के सिद्धात का, इस तरह की प्राति पा कुत्र कारण है। वह यह है कि हम एक बोर तो मरे आदमिया का दुरा पेलत देसत हैं वहा दूसरी बार हम बुरे रोग सुख उठात दीसते हैं। अगर प्रतिपल हमार काय और कारण परम्पर जुड़े हैं ता चुर लोगा का सुसी होगा और भरे रागा या दुपी, होना, बस सम झाया जा सकता है ? एक आदमी मला है. सच्चरित्र है इमानदार है और दुस भोग रहा है पट पा रहा है, दुमरा मादमी बुरा है, वेर्दमान है, चरिनहीन है और
१ सभी जीव अपने आसपास छहा दिशामा मे स्थित कमप्रदगला को ग्रहण करते ह और आत्मा के सब प्रदेशो के साय सव फर्मों का सब प्रकार से बधन हो जाता है।