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१३० . महावीर : परिचय और वाणी ब्रह्मचर्य । अगर उन्होने ब्रह्मचर्य की साधना की होती तो ब्रह्मचर्य होता बाहर और . भीतर होता व्यभिचार । महावीर जैसे व्यक्ति को समझना हो तो वाहर से भीतर की ओर देखने की कोशिश न करना । भीतर से बाहर की ओर देखना।
महावीर की जो उपलब्धि है, वह है समाधि । उपलब्धि की जो उप-उत्पत्तियाँ है वे है सत्य, अहिसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि । न तो ये सिद्धान्त है और न इनके सीधे प्रयोग की ही कोई जरूरत है। हाँ, करने की कोशिश की है वहुत लोगो ने
और वे कोशिश मे विफल हुए है, विकृत हुए है। प्रयोग तो करना है ध्यान का । सत्य, ब्रह्मचर्य आदि आएँगे छाया की तरह । अहिंसा नही साधनी है, साधना है ध्यान । अहिसा फलित होती है। जैसे ही समाधि फलित होती है वैसे ही कुछ चीजे विदा हो जाती है। हिसा विदा हो जाती है, क्योकि समाधिस्थ चित्त के साथ हिंसा का सम्बन्ध नहीं जुडता ।
अक्सर हमे लगता है कि महावीर साधु बने और दूसरो को भी साधु बनाने के लिए कहते रहे। यह हमे इसलिए लगता है कि हम असाधु हे और हमारी धारणा है कि अगर हमे साधु होना हो तो साधु बनना पडेगा। सच्चाई यह है कि साधुता आती है, साधु बनना नहीं पड़ता। जो साधु वनता है उसकी साधुता थोथी, झूठ, आडम्बर-मात्र होती है। साधु बनना अभिनय की बात है। 'महावीर साधु वने'-- यह उनके लिए गलत शब्दों का प्रयोग है। बनना होता है चेष्टा से; महावीर साधु हुए मात्म-परिवर्तन से। महावीर ने किसी को भी साघु बनने के लिए नहीं कहा । उन्होने कहा कि जागी असाधुता के प्रति और तुम पाओगे कि साधुता आनी शुरू हो गई है। प्रयास करके हम चाहे कुछ भी वन जायें, पर साघु नही बन सकते । साधुता तो आत्मपरिवर्तन है, पूरा-का-पूरा आत्मपरिवर्तन । शायद महावीर को पता भी न चला होगा कि वे साधु हो गए है। होने की जो प्रक्रिया है वह अत्यन्त धीमी, शान्त और मौन है। वनने की जो प्रक्रिया है वह अत्यन्त घोषणापूर्ण है, बैड-बाजे के साथ चलती है।
आप ध्यान का छोटा-सा प्रयोग करे। यह आत्म-स्मरण का प्रयोग हो। आधा घटा रोज बैठकर स्वय रह जाएँ, सब भूल जाएँ। मन मे जुआ न खेले, उतनी देर मन मे शराव न पीएँ, मास न खाएँ--बस इतना बहुत है। छह महीने के प्रयोग के बाद आप कहेंगे---जो आनन्द मैंने उस आधे घटे मे पाया वह सारे जीवन मे न मिला। तव आप मास नही खा सकते, शराब नही पी सकते। महावीर का ध्यान ऐसा हा था। जो उस ध्यान से गुजरेगा वह मासाहार नही कर सकता। महावीर किसी को नही कहते कि मांसाहार न करो । वह ध्यान ही ऐसा है कि उससे गुजरनेवाला व्यक्ति मासाहार कर ही नहीं सकता। वह ध्यान इतने जागरण और आनन्द में ले जाता है कि शराब का क्षणिक आनन्द उसके सामने ठहर नहीं पाता।