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महावीर परिचप और वाणी
१२९ है ऐस अजननी को स्वीकार कर सरना कठिन था। जिसके लिए स्वीकार करना सरल
घा उसके लिए वे भगवान थ। भगवान बनाना भी स्वीकार करने की ही एक तरकार है । यह दूसरी और आस्विरो तरकीव है जिससे हमन उहें मनुष्य-जाति से वाहर निकाल दिया है । अगर वहरे तब मेरी आवाज न पहुंचे तो यह नहीं कहा जा सकता कि मैं गंगा था। मेरे बोलने पर इसलिए शक नहीं किया जा सकता कि बहरा तक मेरी आवाज नहीं पहुँची। महावीर के अहिंसक होने म इसलिए एक नहा हो सकता कि हिमव चित्ता तक उनकी आवाज नहीं पहुंची। बहुत गहरे म हम बहरे हैं।
इमो सम्बध में यह भी पूछा जाता है कि महावीर के प्रेम मे क्या कुछ कमी थी जो वे प्रखली गोशालय को समया न पाए ? निश्चित ही, पण प्रेम समझाने को पूरी यवस्था करता है । लेकिन इसमे यह सिद्ध नहीं होता कि पूर्ण प्रेमी ममया हो पाए । क्याकि दूसरी तरफ पूण धणा भी हो सकती है जा समझने को राजी न हो पूर्ण बहरापन भी हो सकता है जा मुनने को तैयार न हो। महावीर की अहिंसा पा जान करनी हो तो दूसरे की तरफ से जाच करना गलत है। सौरे महावीर को ही दसा उचित है। सरज का जानना हो तो किसी अचे आदमी को माध्यम बना पर जानने की कोशिश करना अनुचित है । रेकिन कई बार ऐमा होता है कि हमारी गुर की आंखें इतनी कमजोर होती है कि सीधा देसना मुशिल हो जाता है। इसलिए हम नीच के गुरुआ को सोजते हैं नाचार्यों से सम्पर कायम करते है, टीका. पारों बी सहायता लेते हैं । गीता को सीधा नही देसते, टीकाकारा के माध्यम से देखत है।
यह भी याद रहे कि महावीर न 'सिद्धाता की चर्चा नहीं की और न अहिंसा, सय ब्रह्मापय अपरिग्रह अचीय आदि सिक्षात ही हैं। इसलिए इनक सीने प्रयोग पावात ही गलत है। इनका सोचा प्रयोग हो ही नही सक्ता । उदाहरण के लिए उम भादमी को लें जो भूमा इकटरा करना चाहता है। एमे व्यक्ति को गेहूं बोना पडता है भूमा नहीं । अगर यह भूसा पदा करन के लिए भूसा ही वो दे तो जो पास का मूसा है यह भी खेत म सङ जायगा कुछ भी पदान होगा। अरिसा, अपरिग्रह अचीय, अस्तेय-ये सिद्धात नहीं हैं उप-उत्पतियाँ है भूसे की तरह । जहाँ समाधि पदा होती है वहाँ य सर भूसे की तरह आप ही पदा हा जात है। अहिंसा, सत्य आदि छाया की तरह पाते हैं समाघि अनुभव म। च्याा आया पि उसके पीछे पाया की सरह ये सब आ जात हैं। महावीर ने अहिंसा नही साधी क्योकि हिंमा सायन वार सिफ हिसा यो दरात हैं। मार दवी हुई हिंसा से पो अहिम नहीं होता। अगर किसी व्यक्ति ने काम को रोका और ब्रह्मचय साया तो उमये प्रह्मचय के भीतर जगह्मवय और व्यभिचार हा मिलेंगे। मरावीर के भीतर है समाधि और थाहर है