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________________ महावीर परिचय और वाणी नहीं हो सकता, कर चाह तो वह अपना समपण वापस लौटा सक्ता है---कल वह कह सकता है कि अब मैं समपण नहीं करता। महावीर में इतना भी अहकार नहा कि वे कहें-मैं समपण करता हूँ। समपण के लिए 'मैं तो चाहिए ही। उनमे मैं' काकर्ता होन का भाव बिलकुल नहीं । और, जसा मैंन वहा जो व्यक्ति समपण करता है वह समपण की माग करता है । यह माग एर ही सिक्के का दूसरा हिस्सा है। लेकिन महावीर ने न तो समपण किया और न मागा। मेरी दष्टि म यह परम निरहदारिता है। आसिर मैं ही समर्पित होगा, नियता को मैं ही स्वीकृत करूंगा। महावीर के जस्वीकार में ऐसा नहा है मिनियता नही है। अस्वीकार का कुल मतलब इतना ही है कि वह स्वीकार नही है। अस्वीकार' पर जोर नहीं है। महावीर यह मिद्ध करत नहीं घूमते कि परमात्मा है। उनका अस्वीकार पलिन है, घोषणा नहीं । स्वीकृति और समपण के लिए भी अहकार चाहिए। अगर कोई व्यक्ति नितान्त अहवार य हो जाय ता ममपण कसा? कौन करेगा समपण ? समपणकृत्य है, कृत्य के लिए कर्ता चाहिए। अगर पर्ता नही है तो समपण-जसा कृत्य भी असम्भव है । जब कोई कहता है कि मैंने समपण किया तो समपण से भी वह अपन में' को ही भरता है---उसका समपण मी उसके म' का ही पोपक है। यह समझता है कि मैं कोई साधारण नहीं हूँ, मैं ईश्वर के प्रति समर्पिन हूँ। ___ महावीर के पास एक मग्राट गया। उसने महावीर से कहा-सव है आपकी कृपा से । राज्य है, सम्पदा है सनिक हैं शक्ति है, सब है, लेकिन सुना है कि मोक्ष जैसी भी कोई चीज होती है वह मेरे पास नही। मैं चाहता हूँ वि' उसको भी विजय कर लू । क्या उपाय है ? कितना खच पडेगा? हंसे हांग महावीर उसके पागलपन पर । उहाने कहा कि सरीदने को हा निक्ले हो तो अपने गांव को लौट जाओ। वही एक धारक है, उससे पूछ लेना कि एक सामायिक क्तिने मे बेचेगा । वह नासमझ सन्नाट उस आदमी के घर पहुंचा और हैरान हुआ देखकर कि वह श्रावक बहुत दरिद्र आदमी है। उसने सोचा कि इसे तो पूरा ही सरीद लेंगे। उसने थावक से वह बात कही जिसे महावीर ने कहा था और पूछा कि वह एक ध्यान का मूत्य क्या लेगा? थावक हंसने लगा । उसने कहा कि चाहो तो मुमे सरीद लो लेक्नि सामायिर' सरीदने का कोई उपाय नही । सामायिक पाई जा सकती है उसे मरीदा नहीं जा सकता। लेकिन अहकार उसका भी सरीदना चाहता है भगवान और धम वो भी एरीदना चाहता है। हमारे मन में दो चीजें हैं, अहवार और नम्रता। नम्रता अहसार का ही रूप है, यह बात हमारे सयाल म नहीं आती। महावीर नियता के प्रति, गुरु और परम्परा के प्रति न तो नम हैं और न अनन। दोनों बातें असगत हैं महावीर के लिए। मैं एक वृक्ष के पास और नमस्कार न करें तो आप मुझे अनम्र न बढ़ेग । लेस्नि म न से नियत और नमस्कार
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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