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महावीर : परिचय और वाणी मे आज जो साहित्य उपलब्ध है, उसमे उसका कोई उल्लेख नहीं है। उल्लेख न होने का कारण बहुत गहरा और बुनियादी है। महावीर-जैसी चेतना की अभिव्यक्ति मे परिस्थितियो से कोई भेद नही पडता। इसलिए भिन्न-भिन्न परिस्थिति' कहने का कोई अर्थ नही । मिन्न-भिन्न अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियो मे चित्त सदा समान हे । प्रत्येक स्थिति मे साधारण आदमी का चित्त रुपान्तरित होता रहता है । जैसी स्थिति होती है वैसा चित्त हो जाता है। इसी को महावीर वन्धन की अवस्था कहते । है । स्थिति दुख की होती है तो उसे दुखी होना पडता है, मुख की होती है तो वह सुखी हो जाता है । इसका मतलब यह हुआ कि चित्त की अपनी कोई दशा नही है । सिर्फ बाहर की स्थिति जैसा मौका देती है चित्त वैसा ही हो जाता है। इसका मतलब यह भी हुया कि चेतना अभी उपलव्य ही नही हुई।
असल मे महावीर होने का मतलब ही यही है कि भीतर अब कुछ भी नहीं होता । जो होता है वह सब वाहर होता है। यही महावीर, क्राइस्ट, बुद्ध या कृष्ण होने का अर्थ है । भीतर विलकुल अछ्ता छूट जाता है। वे दर्पण-मात्र रह जाते है।
दो तरह के चित्त है जगत् मे---फोटो-प्लेट की तरह या दर्पण की तरह । फोटोप्लेट की तरह जो काम कर रहे है उन्ही को राग-द्वेप-ग्रस्त कहते है । असल मे फोटोप्लेट बड़ा राग-द्वेष रखती है। वह जकडती है जल्दी, फिर छोडती नही। राग भी पकडता है, द्वेय भी पकडता है। समाधिस्थ व्यक्ति दर्पण की तरह जीता है। वह न सम्मान को पकडता है और न गाली को। इसलिए महावीर के चित्त की अलगअलग स्थितियाँ नही है जिनका वर्णन किया जाय। इसलिए वर्णन नही किया गया। कोई स्थिति ही नही है। एक समता आ गई है चित्त की। गाली देनेवाले या कान मे कीले ठोकनेवाले भी उस चित्त को विचलित नहीं कर पाते। ऐसा कहना गलत है कि महावीर ने ऐसे लोगो को क्षमा कर दिया और आगे बढ गए । क्षमा तभी की जा सकती है जब मन मे क्रोध आ गया हो। क्षमा अकेली बेमानी है। तो मै आपसे कहता हूँ कि महावीर क्षमावान् नही थे क्योकि महावीर क्रोधी नही थे। वे शून्य भवन की तरह थे । भवन मे आवाज गूंजती थी, निकल जाती थी और फिर भवन शून्य हो जाता था। हम फर्नीचर से भरे लोग है, फोटो-प्लेट ने भीतर बहुत इकट्ठा कर लिया है, इसलिए आवाज गूंजती ही नही।
अक्सर ऐसा होता है कि परम स्थिति को उपलब्ध व्यक्ति ठीक जड-जैसा मालूम पडे, क्योकि हम जड को ही पहचानते है । परम ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति भी बच्चेजैसा मालूम होने लगे। उतना ही सरल, उतना ही निर्दोष । शायद बच्चे-जैसा व्यवहार भी करने लगे और तब हमारे लिए यह तय करना मुश्किल हो जाय कि यह आदमी मन्दबुद्धि है या परम ज्ञानी । लेकिन दोनो मे बुनियादी फर्क है । सन्त की सरलता ज्ञान की है। उसकी सरलता पूर्ण उपलब्धि की सरलता है । वह उन