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पचम अध्याय जीवेपणा और महावीर की अहिंसा अहिंमा ममय चेव, एयावन्त नियाणिया ।।
--सू० श्रु० १ ० ११, गा० १० (१) हिंसा पैदा ही क्या होता है ? हिंमा जन्म के साथ ही क्या जुडी है ? जिसे हम जीवन रहते हैं वह हिंसा का ही तो विस्तार है । ऐसा क्या ? पहली बात, और अत्यधिक जाधारभूत वात-वह है जीवेपणा । जीने की जो आकाक्षा है, उससे ही हिमा जम रेती है। अकारण भी हम जीने को आतुर । जीवन से कुछ परित न भी होता हो तो भी जीना चाहते हैं। जीन का एक अत्य त पागल और विक्षिप्त माव है हमारे मन म । मरने आखिरी क्षण तक भी हम जीना हा चाहत है दूसरे
जीवन के मूल्य पर भी जीना चाहते है । जीवेपणा की इस विक्षिप्तता से ही हिंसा के मय रूप जमलेत हैं।
(२) महावीर यही पूछते हैं कि जीना क्या है ? बडा गहन सवार उटात हैं। मप्टि किसन रची, माक्ष कहां है. ये सवाल नायद इतने गहरे नहा हैं । महावीर पूटने हैं-जीना ही क्या है ? इसी प्रश्न से महावीर का सारा चिता और सारी माधना निकलती है।
महावीर कहत ह पिजीन की यह बात ही पागलपन है। जीने की इस आवाक्षा मनीवन बचता हा ऐमा नहा है क्बर दूसरा क जीवन को नष्ट करने की दौड पता होती है। जीवन बच पाता, तो मी ठीक था । वचंता भी नहीं है। अन्तत मौत हा दाथ रगती है। महावीर पहल हैं कि ऐसे जीवन में पागलपन को मैं छाडता निगवे रिए मैं दूमरा के जीवन का नष्ट करने के लिए तयार हाता हूँ और अपना वचा भी नहीं पाता । जो व्यक्ति जोयेपणा छोड़ देता है, यही महिसक हो सकता है।
र उसम जीन या कोई आग्रह नहीं रहता तब वह किसी 4 विनाश के लिए भी गती नहीं होता।
रविन इसका यह अथ नहा कि महावीर मरने को आकाक्षा रसते थे। प्रॉयड यहता था कि जिालागा यी जीवेपणा रण हा नाती है व फिर मृत्यु की जाकाक्षा
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१ अहिंसा को हो गास्नकथित माश्यत धम समाना चाहिए।