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________________ महावीर परिचय और वाणी हैं। अगर सारा ध्यान वहाँ केद्रित हो जाय ता भीतर करीब-करीव एव आख ये वरावर का एक टुक्डा बिल्कुल सुल जाता है। जिसे हम महावीर का साधना काल कहन है वह अभिव्यक्ति के माध्यम खोजन मे और इस तरह कद्रा को सक्रिय करने और तोटने म व्यतीत हुआ। इस तरह ये केद्रा को ताडने म जितना ज्यादा ध्यान बिना बाधा के दिया जा सके उतना उपयोगी है। यही वजह है कि महावीर को बहुत लम्बे अरसे तक पाना, पीना, सोडा आदि सारे काम त्यागने पड़े थे। चोट सतत और सीधी होनी चाहिए। बीच म कोइ बाधा न पाए। बीच म दूसरी बात आयगी तो ध्यान वही जायगा। और “यान दूसरी जगह गया कि जो काम हुआ था वह अधूरा छूट जायगा। वह अधूरा 7 छूट जाय, इसलिए जीवन मे सारे कामा से-जो बीच में बाधाएँ उपस्थित पर सक्त हैं-ध्यान हटाना पगा। तभी किसी केन्द्र को पूरी तरह सक्रिय दिया जा सकता है। ध्यान रहे कि महावीर का अधिक्तम साधना खडे खडे हुई है, जब पि दूसरे साधका न बैठकर साधना की है। महावीर के ध्यान का प्रयोग भी खडे खड़े करन के लिए है। इसका कारण यह है कि बठा या रेटा हुआ आदमी सो सकता है। और अगर एक क्षण भी ध्यान वहां से हट जाय तो पहला काम विलीन हो जाता है। जिस चक्र को सक्रिय करना हो उस पर सतत काम होना चाहिए। वह पाम सडे होकर ही किया जा सकता है। निद्रा से बचने लिए ही महावीर ने भोजन करना छोड दिया था। नीद का पचहत्तर प्रतिशत भोजन से सम्बघित है । जो रोग आताचक्र पर काम करते हो और जिनका ध्यान उस पर लगा हो, उनका शक्ति नीचे नही मानी चाहिए। यदि पेट भरा हो तो मस्तिष्क की शक्ति उतर जाती है नीचे । सत्य की अनुभूति से वह चा नहीं खुल जाता । हो, उस अनुभूति को उस चक्र में माध्यम से प्रकट करना हो तो उसे खालन की जस्रत पड़ती है। आनाचन के सुरने से ही दवताआ से ऋडा जा सकता है । भाव जो भीतर पदा होते है व माज्ञाचन से प्रति वनित हा जात है और देव चेतना तक प्रवेश कर जाते हैं। मो दो बात कही । जड से सम्बंधित हाना हो तो चेतना इतनी शिथिल हा जानी चाहिए कि जद के साथ तादात्म्य स्थापित हो जाय और यदि मनुप्य से उपर की योरिया से सम्बंधित होना हो ता चेतना इतनी एकाग्र होनी चाहिए पि आना चव सनिय हा जाय-तीसरी आंख सुर जाय।। सम्मान के द्वारा स दश बस पहुँचाया जाय, इममे लिए भी महावीर न या तर काम किया था। रबिन उहाने इस विधि का उपयोग नहीं किया, क्यापि उह पता था नि सम्मोहन के द्वारा सदेश ता पहुंच जात ह लेकिन दूसरे व्यक्ति का पुट सूम नृपसान भी हा जाता है। उसकी तय गक्ति क्षीण हो जाती है यह परया
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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