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महावीर : परिचय ओर वाणी
हो जाती है । जो सयमी परिपूर्ण चित्त से हँस न सके, वह अभी सयमी नही है । निपेध और दमन उसके व्यक्तित्व को खडित कर डालते है । उसके भीतर अनेक ग हो जाते है | वह अपने आपको ही वॉटकर लड़ना शुरु कर देता है । इनमें कभी जीत नही होती । स्वय से लडनेवाले कभी नही जीतते । परन्तु महावीर का रास्ता जीत का रास्ता है ।
(४) सयम से लडना अपने ही दोनो हाथो को लडाने जैसा है । न वायां जीत सकता है और न दायाँ, क्योकि दोनो के पीछे मेरी ही ताकत लगती है । खडित व्यक्तित्व विक्षिप्तता की ओर जाता है |
अगर आप चोरी करे तो कभी अखड न होगे । आपके भीतर का एक हिस्सा चोरी के खिलाफ ही खड़ा रहेगा । इसी तरह झूठ के साथ पूरी तरह राजी हो जाना असम्भव है | लेकिन अगर आप सत्य बोलें, चोरी न करें, तो आप असड हो सकते है । महावीर ने उन्ही-उन्ही बातो को पुण्य कहा है जिनसे हम अखड हो सकते हैं । वह पाप है जो हमे खडित करता है, आदमी को टुकडो मे वांटता है । आदमी का
जाना ही है ।
महावीर लडने को नही कहते, जीतने को जरूर कहते हैं । जीतने का रास्ता यह नही कि मै अपनी इन्द्रियो से लडने लगूं ; जीतने का रास्ता यह है कि मैं अपने अतीन्द्रिय स्वरूप की खोज मे सलग्न हो जाऊँ, अपने भीतर छिपे हुए खजाने की खोज मे जुट जाऊँ। जैसे-जैसे वे खजाने प्रकट होंगे, वैसे-वैसे कल की महत्त्वपूर्ण चीजें गैरमहत्त्वपूर्ण हो जायँगी ।
(५) महावीर जिसे सयमी कहते हे, वह व्यक्ति इसके पागलपन से मुक्त हो जाता है । महावीर एक और भीतरी रस खोजते है, एक ऐसा रस जो भोजन से नही मिलता । एक और रस भी है जो भीतर सम्बन्धित होने से मिलता है । हमारी इन्द्रियो का काम सयोजन करना है, जोड़ना है -- वे सेतु का, सयोजक कडी का, काम करती है । स्वाद की इन्द्रिय हमे भोजन से और आँख की इन्द्रिय दृश्य जगत् से जोड देती है । महावीर कहते है कि जो इन्द्रिय हमे बाहर के जगत् से जोड सकती है, वह हमे भीतर के जगत् से भी जोड सकती है । भीतर भी ध्वनियों का एक अद्भुत जगत् है । कान उससे भी हमे जोड सकता है । भीतर भी रस का सागर लहराता होता है । जीभ भीतर के इस रस से हमे जोड सकती है।
(६) आपने सुना होगा कि साधक और जोगी अपनी जीम उलटा कर लेते है । साधक और योगी का यह काम सिर्फ प्रतीक है । इसका अर्थ यह है कि जीभ का जो रस बाहर पदार्थों से जुड़ता था, वह अव भीतर आत्मा से जुड जाता है । साधक अपनी आँख उलटी चढा लेता है । इसका कुल अर्थ इतना ही है कि वह जो बाहर देखता था, अव भीतर देखने लगता है । और एक बार भीतर का स्वाद आ जाय