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चतुर्थ अध्याय
अकाम
सल्ल कामा विस कामा, कामा आसीविसोपमा । कामे य पत्थेमाणा, अकामा जन्ति दोगई ।।
-उत्त० अ० २, गा० ५३ ऊपर जिन तीन व्रतो की हमने वात की उन नबके माधार में काम की शक्ति ही काम करती है। अकाम ही अहिंसा, अपरिग्रह और अचार्य का आधार है, कामवासना अर्थात् चाह, हिमा, परिग्रह और नीर्य का नाघार । काम ( कामना, इच्छा ) के मार्ग मे यदि बाधा उपस्थित हो तो काम हिंमक हो उठता है, अगर कोई वाधा न हो और काम सफल हो जाय तो वह परिग्रह बन जाता है।
विज्ञान की दृष्टि मे आज सारा काम ऊर्जा का नमूह है, एनर्जी है । धर्म इन शक्ति को परमात्मा का नाम देता है। विज्ञान इस शक्ति को अभी एनर्जी मात्र ही कह रहा है। विज्ञान थोडा आगे बढेगा तो उससे एक और भूल टूट जायगी। जैसे विज्ञान को पता चला कि पदार्थ ऊर्जा का सघन रूप हे वने ही उसे आज नही तो कल पता चलेगा कि चेतना का सघन रूप एनर्जी है। प्रत्येक व्यक्ति इसी ऊर्जा का स्फुलिंग है, एक छोटा-सा रूप है। यह ऊर्जा अगर बाहर की ओर वहे तो वह काम वन जाती है और अगर भीतर की ओर बहे तो अकाम बन जाती है, मात्मा बन जाती है । भेद सिर्फ दिशा का है। जब कामना घर की ओर लौट पटती है तब अकाम का जन्म होता है; जब काम-ऊर्जा वाहर की ओर बहती है तब आदमी क्षीण, निर्वल और निस्तेज होता चला जाता है। जिसे हमे पाना है, शक्ति उसी की ओर प्रवाहित होनी चाहिए। अगर हमे बाहर की वस्तुएँ उपलब्ध करनी है तो शक्ति को बाहर जाना पडेगा और अगर हमे आत्मा पानी हो तो शक्ति को भोतर जाना पड़ेगा।
काम को मैं बाहर वहती हुई ऊर्जा कहता हूँ • अकाम से मतलब है भीतर वहती हुई ऊर्जा । शक्ति चाहे तो बाहर की ओर वहे या भीतर की ओर । जव वह बाहर की ओर वहती है तब हमे सब-कुछ उपलब्ध हो सकता है, केवल आत्मा
१. कामभोग शल्यरूप है, कामयोग विष के समान है और कामभोग भयंकर सर्पजैसे है । जो कामभोग की इच्छा करता है, वह उसे प्राप्त किए बिना ही दुर्गति मे जाता है ।