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महावीर परिचय और वाणी
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श्रवण कहते है | श्रावक हम तब होते हैं जब हम सिफ सुनते हैं और हमारे भीतर कुछ भी नही होता ।
महावीर की सतत चेष्टा इसम लगी कि मनुष्य श्रावक कसे वने- वह बसे सुन सके। यह तभी सुन सकता है जब उसके चित्त की सारी विचार-परित्रमा ठहर जाय । फिर वालने की जरूरत नहीं, वह सुन लेगा। ऐसी बोली जो वोलो तार गई हो पर जिसे सुना गया हो, 'दिव्य ध्वनि' की सना पाती है । ऐसी ध्वनि वोली नही जाती लेकिन सुनी जाती है, दी नही जाती लेकिन पहुँच जाती है । सिफ भीतर उठती है और सम्प्रेषित हो जाती है। और स्मरण रहे कि श्रोता कान से सुनता है, श्रावक अपने पूरे प्राणा से सुनता है। महावीर न सम्यक श्रवण की, श्रावक बाने की, क्ल विकसित की । यह बड़ी से बडी क्ला है जगन में क्राइस्ट जैसी महान आत्माएँ भी होगा का समझा न पाई । उहाने सिर्फ इसकी फित्र की कि में ठीक ठीप कहूँ इसकी फिक्र नही की कि लोग ठीक ठीक सुन सकें । मुहम्मद ने इसकी पिक न की कि उन श्राता वेवल सुने ही नहीं, सम्यक श्रवण भी करें । उहान केवल इसकी फिन की कि मैं जो कह रहा हू वह ठीक हो । लेकिन कहना ही ठीक होने से कुछ नही होता सुननेवाला भी ठीक होना चाहिए। नहीं तो बहना यथ हो जाता है ।
इसलिए धावक बनने की क्ला को मैं महावीर की दूसरी बडी देना म मानता हूँ ।
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जिसे 'प्रतिनमण" ( शास्ना म पडिवाण' ) कहा जाता है वह भी श्रावक बनाने की कला का एक हिस्सा है । 'आक्रमण' का अथ होता है-दूसरे पर हमला करना,
१ द्रष्टय
पडिक्कमण भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? पडिवक्मणेण वयछिद्दाणि पिहेइ । पिहिप चयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचरिते अटठसु पवयणमायासु अपहते सुप्पणिहिये विहर || (उत्त० अ० २९, गा० ११) 'हे भगवान ! प्रतिरमण से जीव क्या उपाजन करता है ?" 'यि ! प्रतिरमण से जीव ग्रता के छिद्रो को ढँक्ता है और इस तरह व्रता के छिद्रो को ढकने से यह जीव आसव रोकनेवाला होता है। साथ ही शुद्ध चरित्रवान और अष्टप्रवचन माता के प्रति उपयोग वाला बनता है तथा समाधिपूवव सयममाग मे विचरण करता है ।' दे० १० घोरजलाल माह 'शतावधानी, श्री महावीर वचनामृत (स० २०१९), प० ३६७ ३६८ ।
पडित मुसलालजी के अनुसार 'प्रतिक्रमण का मतलब पोछे लौटना है-एक स्थिति मे जाकर फिर मूल स्थिति को प्राप्त करना प्रतिक्रमण है ।' (दशन और चित्तन, पू० १७९) 'सामान्य रीति से प्रतिक्रमण (१) द्रव्य और (२) भाव, यों दो