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द्वितीय अध्याय
अपरिग्रह
धणधन्न पेसवग्गेसु, परिग्गहविवज्जणं । सब्वारभरिच्चायो, निम्ममत्त सुबकरं ||
-उत्त० अ० १९, गा० २९
दूसरे महाव्रत 'अपरिग्रह' को समझने के लिए परिग्रह को समझ लेना आवश्यक है । परिग्रह का अर्थ है वस्तुओ पर मालकियत की भावना - ' पजेसिवनेस' । वस्तुओ प्रति ही नही, हम व्यक्तियो के प्रति भी परिग्रही होते हैं ।
परिग्रह हिंसा का ही एक आयाम है। सिर्फ हिंसक व्यक्ति ही परिग्रही होता है । जैसे ही हम किसी व्यक्ति या वस्तु पर मालकियत की घोषणा करते हैं वैसे ही हम गहरी हिंसा मे उतर आते है । विना हिसक हुए मालिक होना असम्भव है । मालकियत हिंसा है । पति मालिक है पत्नी का । पति शब्द का अर्थ ही मालिक होता है । स्त्रियां पति को स्वामी भी कहती है । स्वामी भी पर्याय है मालिक का । परिह का अर्थ है स्वामित्व की आकाक्षा । पिता बेटे का मालिक वन जाता है, गुरु शिष्य का । जहाँ भी मालकियत है वहां परिग्रह है, हिंसा है । विना किसी को गुलाम बनाए मालिक नही हुआ जा सकता । विना परतन्त्रता थोपे स्वामी होना असम्भव है |
मनुष्य के मन मे मालिक बनने की आकाक्षा क्यो है ? इसका कारण है कि हम अपने स्वामी नही है, हमे अपने ऊपर भी अधिकार नही है । जो व्यक्ति अपना मालिक हो जाता है, उसकी मालकियत की धारणा खो जाती है। चूंकि हम अपने मालिक नही हैं, इसलिए हम इस अभाव की पूर्ति आजीवन दूसरो के मालिक होकर करना चाहते है | लेकिन कोई सारी पृथ्वी का मालिक हो जाय तो भी यह कभी पूरी नही हो सकती । अपना मालिक होना एक आनन्द है, दूसरे का मालिक होना सदा दुख है । इसलिए जितनी बडी मालकियत होती है, उतना बडा दुख पैदा होता है । पर याद रहे कि दूसरे का मालिक बनकर अपनी मालकियत नही पाई जा सकती । असल मे मालकियत दोहरी परतत्रता है । जिसके हम स्वामी बनते है वह तो हमारा गुलाम बनता
१. धन-धान्य, नौकर-चाकर आदि का परिग्रह छोड़ना, सर्व हिंसक प्रवृत्तियो का त्याग करना और निर्ममत्व भाव से रहना, यह अत्यन्त दुष्कर है ।