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महावीर : परिचय और वाणी कहना पडेगा कि अव वात जरा ज्यादा हो गई। यह प्रश्न असगत है कि इस समग्र को किसने सँभाल रखा है, क्योकि 'समग्र' और 'किसने' की धारणा ही परस्पर विरोधी है। समग्न के बाहर यदि कुछ है तो समग्र की समग्रता पूरी कहाँ हुई ? अगर सँभालनेवाले को हम वाहर रखते है तो समग्र अभी पूरा नही हुआ और अगर सव-कुछ उसके भीतर है तो वाहर कोई वचता नही जो उसे सभाले । सवको कोई भी संभाले हुए नही है--सव स्वय सँभला हुआ है। इसलिए महावीर कहते है कि जीवन स्वयभूहै-न इसको बनानेवाला है और न मिटानेवाला । यह स्वयं है।
मेरी अपनी समझ है कि जो लोग अस्तित्व की गहराइयो मे जाएंगे वे सप्टा की धारणा को कभी स्वीकार नही कर सकते । चूंकि हम लहरो का हिसाव रखते है इसलिए हम परम सत्य के सम्बन्ध में भी पूछना चाहते है कि वह कब शुरू हुआ, उमका कब अन्त होगा । सूरज बनेगा, सूरज मिटेगा । वह भी एक लहर है । पृथ्वी दो अरब व चलेगी। वह भी मिटेगी, वनेगी। वह भी एक लहर है। हजारो पृथ्वियाँ वनी है और मिटी है। हजारो सूरज बने हैं और मिटे है । प्रतिदिन कही-न-कही कोई सूरज ठडा हो रहा है और किसी-न-किसी कोने में कोई नया सूरज जन्म ले रहा है। इस वक्त भी अभी जब यहाँ वैठे है, कोई सूरज बूढा हो रहा है। आकार बनेगे और विगडेगे, आकृति उठेगी और गिरेगी। सपने पैदा होगे और खोएंगे। लेकिन जो सत्य है, वह सदा है। वस्नु त यह कहना भी गलत है कि सत्य है, क्योकि जो है वही सत्य है । सत्य के साथ 'है' को भी जोडना बेमानी है, क्योकि 'है' उसके साथ जोडा जा सकता है, जो 'नही है' हो सकता है । हम कह सकते है कि 'यह मकान है', क्योकि 'मकान नहीं है' यह भी हो सकता है। लेकिन 'सत्य है'--ऐसा कहने में कठिनाई है, क्योकि 'सत्य नही है'--यह कभी नही हो सकता। इसलिए 'सत्य' और 'है' पर्यायवाची है। इनका एक साथ दोहरा उपयोग करना पुनरुक्ति है । __इस तथ्य का थोडा सा खयाल आ जाय तो सब बदल जाता है। तव पूजा और प्रार्थना नही उठती, तव मस्जिद और मन्दिर खडे नही होते--तव आदमी ही मन्दिर वन जाता है । आदमी का उठना-बैटना, चलना-फिरना सब पूजा और प्रार्थना हो जाती है। इस बात का बोध हो जाता है कि मेरे भीतर जो सदा है, वही सार्थक है और वह सबके भीतर है, वह एक ही है। इस वोध के बाद व्यक्ति खो जाता है, अहकार मिट जाता है। और तब जिसका जन्म होता है उसी का नाम है 'बदला हुआ चित्त'।
मेरी दृष्टि मे जड और चेतन दो पृथक् चीजे नही है। वे केवल पृथक् दिखाई पडती है । जड का मतलब है इतना कम चेतना कि हम उसे अभी चेतन नहीं कह