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युगवीर-निवन्धावली
ठहराया है । परन्तु देश, काल और समाजकी स्थिति से परिचित अनुभवी विद्वानोने तुरन्त ही समन लिया होगा कि यह सव रुटि माहात्म्य है । जिरा समाजमे प्रवृत्ति देवीकी सूव उपासना हो रही हो, रुढियोका प्रवल राज्य हो, रस्म, रिवाज और आम्नायका ही गीत गाया जाता हो, गर्भमे आते ही रूढियोका दासत्व सिखलाया जाता हो और इसलिये रोम-रोमपर रूढियोका सिक्का जमा हुआ हो, उस समाज मे ऐसा होना कुछ भी आश्चर्य की बात नही है । रुदियोंके चक्कर में पडकर मनुष्यकी अजीव ही हालत हो जाती है । वह उन्हे नि सार और हानिकारक समझता हुआ भी उनके कारण अनेक सकट सहता हुआ भी---- संस्कारवश उन्हीके प्रेममे बँधा रहता है, उन्हीकी पैरवी करता है अर्थात् उन्हे सत्य श्रेष्ठ सिद्ध करनेकी चेष्टा करता है और वीर पुरुपकी तरह एकदम उनका सम्बन्ध छोड़कर इस चक्करसे निकलने के लिये तैयार नही होता है--इसीका नाम रूढि माहात्म्य है । इसी माहात्म्यके वणवर्त्ती होकर पडितजीने दो श्लोकोके अर्थको विपरीत वतलाने तथा अन्य खीच-तान करनेकी चेष्टा की है |
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पडितजी इस लेख से कुछ भोले भाइयो तथा अन्य प्रवृत्तिभक्तो के हृदयमे कुछ भ्रम होना सभव है । अत उस भ्रमके निरसन करनेके लिये आज यह 'ऊर्थ समर्थन' रूप लेख लिखा जाता है
When
"जैनधर्म जैनियो की पेतक सम्पत्ति -- जैनियोका मोरूसी तरका -- नही है । यह जीवात्माका निज धर्म होनेसे प्राणीमात्र इस धर्मका अधिकारी है | मनुष्यमात्र इस धर्मका धारण कर सकता है -- जैनियोको अपनी संकीर्णता और स्वार्थपरता छोडकर भूमंडल के