Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - २.दैवी जीवन-जीवन में सत्य का सहारा हो, अहिंसा का आलोक हो, प्रेम का प्रदीप हो, करुणा का कमनीय कुंज हो, संयम का शस्त्र हो तथा आत्मानुशासन का आधार हो। सज्ञानता का सम्बल हो, तो जीवन श्लाध्य हो जाता है, यही दैवी जीवन है।
३.आध्यात्मिक जीवन- आध्यात्मिक जीवन के बारे में कहा गया है कि अपरिमित ज्ञानालोक से जगमगाता जीवन आध्यात्मिक स्तरीय जीवन है। जिसमें सम्यक् ज्ञान की लौ प्रचण्ड प्रकाश को विकीर्ण कर स्वानुकूल आचरण हेतु न केवल प्रेरणा देती है, वरन् इस मार्ग के सभी व्यवधान-तिमिरों को निर्मूल कर देती है। यही आध्यात्मिक जीवन की आधारभूत विशेषता है। आध्यात्मिक जीवन एक मंजूषा है, जो रत्नत्रय की झलमलाहट से सदा ज्योतिर्मय रहती है। सम्यक्ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् चारित्र की यह त्रिवेणी गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम के समान आध्यात्मिक जीवन को तीर्थराज प्रयाग की ही भाँति न केवल गरिमा व पवित्रता देती है, वरन् उद्धारक रूप का निर्माण भी करती है। आध्यात्मिक जीवन व्यक्ति को जनहितार्थ अपेक्षित क्षमता भी देता है और इस दिशा में गहन रुचिशीलता भी।
ऊपर सम्यक् ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक् चारित्र का उल्लेख हुआ है। वस्तुत: इन तीनों का चरम विकास ही आत्मा को परमात्मा बनाता है। आध्यात्मिक जीवन का प्रथम सोपान दीक्षा है। यही वह यात्रारम्भ है जिसका चरम लक्ष्य मोक्ष है। दीक्षा के संबंध में एक विद्वान् का कथन है कि दीक्षा जीवन क परिवर्तन है। निश्चिय ही दीक्षा-प्रक्रिया में वेश-परिवर्तन, सिर-मुण्डन, गृहपरित्यागादि सब कुछ होता है। किन्तु यही दीक्षा के महान् विचार का सर्वस्व नहीं हुआ करता। ये तो बाह्य क्रियाएँ मात्र हैं, जो आभ्यन्तरिक परिवर्तन की परिचायिका होती हैं। ये बाह्य परिवर्तन अपने में दीक्षा के समग्र महत्त्वमय स्वरूप का वहन करने की क्षमता नहीं रखते। केशमुण्डन तभी सार्थक होता है, जब राग द्वेष की जटायें मुण्डित हो सकें। ममताबुद्धि का त्याग आदि ही तो दीक्षान्तर्गत परिवर्तन के मूलतत्त्व हैं। भोगेच्छु कभी दीक्षोपयुक्त नहीं माना जा सकता। अतृप्त बुभुक्षाग्रस्त व्यक्ति दीक्षा का पात्र नहीं ठहराया जा सकता। जिसके अंतर्मन में मोक्ष की कामना का तीव्रतम स्वरूप है और जो उसी की प्राप्ति हेतु साधनारत होने के संकल्प के साथ वीत रागी हो जाने की दृढ़ अभिलाषा का वहन करने वाला है यथार्थ में दीक्षार्थी हो सकता है। दीक्षा का प्रयोजन है, अचंचलमन से मुक्तिमार्ग पर सतत् गतिशीलता का शुभारंभ। जाम शान 2 अनेक भव्य आत्माओं ने आचार्य भगवन् श्रीमद्विजययतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के कर-कमलों से दीक्षाव्रत अंगीकार कर अपने जीवन को सार्थक बनाया है। इस संदर्भ में यदि हम यह कहें कि आचार्य भगवन् सच्चे अर्थों में जीवन निर्माता गुरुदेव थे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आचार्य भगवन् के करकमलों से दीक्षित होने वाले भव्य आत्माओं की नामावली इस प्रकार है- शामी का १. बीजापुर (गोड़वाड़ मरुधर) में खुशालचन्द्र जी एवं जसी बहन की पुत्री केसरबाई धर्मपत्नी
रामचंद्र जी को वि.सं. १९७५ फाल्गुन शुक्ला ३ को लघु दीक्षा प्रदान कर साध्वी श्री चमनश्री के नाम से पू. मानश्री जी की शिष्या घोषित किया।
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