Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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जैन धर्म में तीर्थंकर : एक विवेचना
१. जैनधर्म में तीर्थंकर का स्थान
जैनधर्म में तीर्थंकर को धर्मतीर्थ का संस्थापक कहा गया है। 'नमोत्थुणं' नामक प्राचीन प्राकृत स्तोत्र में तीर्थंकर को धर्म की आदि करने वाला, धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाला, धर्म का प्रदाता, धर्म का उपदेशक, धर्म का नेता, धर्ममार्ग का सारथी और धर्मचक्रवर्ती कहा गया है। जैनाचार्यों ने एकमत से यह माना है कि समय-समय पर धर्मचक्र प्रवर्तन हेतु तीर्थंकरों का जन्म होता रहता है। जैनधर्म का तीर्थंकर गीता का अवतार के समान धर्म का संस्थापक तो है किन्तु दुष्टों का दमन एवं सज्जनों की रक्षा करने वाला नहीं है। जैनधर्म में तीर्थंकर लोककल्याण Share मात्र धर्ममार्ग का प्रवर्तन करते हैं किन्तु अपनी वीतरागता, कर्मसिद्धान्त की सर्वोपरिता एवं अहिंसक साधना की प्रमुखता के कारण हिन्दूधर्म के अवतार की भाँति वे अपने भक्तों के कष्टों को दूर करने हेतु दुष्टों का दमन नहीं करते हैं।
जैन-धर्म में तीर्थंकर का कार्य है स्वयं सत्य का साक्षात्कार करना और लोकमंगल के लिए उस सत्यमार्ग या सम्यक् मार्ग का प्रवर्तन करना । वे धर्ममार्ग के उपदेष्टा और धर्म मार्ग पर चलने वालों के मार्गदर्शक हैं। उनके जीवन का लक्ष्य होता है, स्वयं को संसार चक्र से मुक्त करना, आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त करना और दूसरे प्राणियों को भी इस मुक्ति और आध्यात्मिक पूर्णता के लिए प्रेरित करना और उनकी साधना में सहयोग प्रदान करना । तीर्थंकर को संसार समुद्र से पार होने वाला और दूसरों को पार कराने वाला कहा गया है।' वे पुरुषोत्तम हैं। उन्हें सिंह के समान शूरवीर, पुण्डरीक कमल के समान वरेण्य और गंधहस्ती के समान श्रेष्ठ माना गया है। वे लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक के हितकर्ता तथा दीपक के समान लोक को प्रकाशित करने वाले कहे गये हैं।
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२. तीर्थंकर शब्द का अर्थ और इतिहास
धर्मप्रवर्तक के लिए जैन परंपरा में सामान्यतया अरहंत, जिन, तीर्थंकर - इन शब्दों का प्रयोग होता रहा है। जैन परंपरा
डॉ. रमेशचन्द्र गुप्त.......
में तीर्थंकर शब्द कब अस्तित्व में आया, यह कहना तो कठिन है किन्तु निःसंदेह यह ऐतिहासिक काल में प्रचलति था । बौद्ध साहित्य में अनेक स्थानों पर 'तीर्थंकर' शब्द प्रयुक्त हुआ है, दीघनिकाय के सामञ्ञफलसुत्त में छह अन्य तीर्थंकरों का उल्लेख मिलता है । ३
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जैनागमों में उत्तराध्ययन, आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध, स्थानांग, समवायांग और भगवती में तीर्थंकर शब्द का प्रयोग हुआ है। संस्कृत में तीर्थ शब्द घाट या नदी के तीर का सूचक है। वस्तुतः जो किनारे से लगाए वह तीर्थ है। धार्मिक जगत् में भवसागर से किनारे लगाने वाला या पार कराने वाला तीर्थ कहा जाता है। तीर्थ शब्द का एक अर्थ धर्मशासन है। इसी आधार पर संसार - समुद्र से पार कराने वाले एवं धर्मतीर्थ (धर्मशासन) की स्थापना करने वाले को तीर्थंकर कहते हैं।
भगवतीसूत्र एवं स्थानांग में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह धर्मों का पालन करने वाले साधकों के चार प्रकार बताए गए हैं।
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श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका - इस चतुर्विध संघ को भी तीर्थ कहा जाता है तथा इस चतुर्विध संघ के संस्थापक को तीर्थंकर कहते है ।" वैसे जैन साहित्य में तीर्थंकर का पर्यायवाची प्राचीन शब्द 'अरहंत' (अर्हत्) है। प्राचीनतम जैनागम आचारांग में इसी शब्द का प्रयोग हुआ है।
विशेषावश्यकभाष्य में तीर्थ की व्याख्या करते हुए बतलाया गया है कि 'जिसके द्वारा पार हुआ जाता है, उसको तीर्थ कहते हैं।' इस आधार पर जन-प्रवचन को तथा ज्ञान और चारित्र से सम्पन्न संघ को भी तीर्थ कहा गया है । पुनः तीर्थ के ४ विभाग किए गए
१. नामतीर्थ २. स्थापनातीर्थ ३. द्रव्यतीर्थ ४. भावतीर्थ ।
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