Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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___-यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म -
दुःखी मन से कहते हैं - हे प्रभु ! जंगल में निवास और दरिद्र का साथ अभिनिवेश विकसित हो गया था। कुलगुरु की वैदिक अवधारणा की अच्छा है, अरे व्याधि ! और मृत्यु भी श्रेष्ठ है, किन्तु इन कुशीलों का भाँति प्रत्येक गुरु के आस-पास एक वर्ग एकत्रित हो रहा था जो उन्हें सान्निध्य अच्छा नहीं है । अरे । (अन्य परम्परा के) हीनाचारी का साथ अपना गुरु मानता था तथा अन्य को गुरु रूप में स्वीकार नहीं करता भी अच्छा हो सकता है, किन्तु इन कुशीलों का साथ तो बिल्कुल ही था। श्रावकों का एक विशेष समूह एक विशेष आचार्य को अपना गुरु अच्छा नहीं है । क्योंकि हीनाचारी तो अल्प नाश करता है किन्तु ये तो मानता था, जैसा कि आज भी देखा जाता है । हरिभद्र ने इस परम्परा शीलरूपी निधि का सर्वनाश ही कर देते हैं । वस्तुतः इस कथन के में साम्प्रदायिकता के दुरभिनिवेश के बीज देख लिये थे। उन्हें यह स्पष्ट पीछे आचार्य की एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि है। क्योंकि जब हम किसी को लग रहा था कि इससे साम्प्रदायिक अभिनिवेश दृढ़ होंगे। समाज विभिन्न इतर परम्परा का मान लेते हैं तो उसकी कमियों को कमियों के रूप में छोटे-छोटे वर्गों में बँट जाएगा। इसके विकास का दूसरा मुख्य खतरा ही जानते हैं । अत: उसके सम्पर्क के कारण संघ में उतनी विकृति नहीं यह था कि गुणपूजक जैन-धर्म व्यक्तिपूजक बन जायेगा और वैयक्तिक आती है, जितनी जैन-मुनि का वेश धारण कर दुराचार का सेवन करने रागात्मकता के कारण चारित्रिक दोषों के बावजूद एक विशेष वर्ग की, वाले के सम्पर्क से । क्योंकि उसके सम्पर्क से उस पर श्रद्धा होने पर एक विशेष आचार्य की इस परम्परा से रागात्मकता जुड़ी रहेगी । युगव्यक्ति का और संघ का जीवन पतित बन जाएगा । यदि सदभाग्य से द्रष्टा इस आचार्य ने सामाजिक विकृति को समझा और स्पष्ट रूप से अश्रद्धा हुई तो वह जिन-प्रवचन के प्रति अश्रद्धा को जन्म देगा (क्योंकि निर्देश दिया- श्रावक का कोई अपना और पराया गुरु नहीं होता है, सामान्यजन तो शास्त्र नहीं वरन् उस शास्त्र के अनुगामी का जीवन देखता जिनाज्ञा के पालन में निरत सभी उसके गुरु हैं ।५२ काश, हरिभद्र के द्वारा है), फलत: उभयतो सर्वनाश का कारण होगी, अत: आचार्य हरिभद्र बार- कथित इस सत्य को हम आज भी समझ सकें तो समाज की टूटी हुई बार जिन-शासन-रसिकों को निर्देश देते हैं-ऐसे जिन शासन के कलंक, कड़ियों को पुनः जोड़ा जा सकता है। शिथिलाचारियों और दुराचारियों की तो छाया से भी दूर रहो, क्योंकि ये तुम्हारे जीवन, चारित्रबल और श्रद्धा सभी को चौपट कर देंगे। हरिभद्र को क्रान्तदर्शी समालोचक : अन्य परम्पराओं के सन्दर्भ में जिन-शासन के विनाश का खतरा दूसरों से नहीं, अपने ही लोगों से
पूर्व में हमने जैन-परम्परा में व्याप्त अन्धविश्वासों एवं धर्म के नाम अधिक लगा । कहा भी है
पर होने वाली आत्म-प्रवंचनाओं के प्रति हरिभद्र के क्रान्तिकारी अवदान की इस घर को आग लग गई घर के चिराग से । चर्चा सम्बोधप्रकरण के आधार पर की है। अब मैं अन्य परम्पराओं में
वस्तुत: एक क्रान्तदर्शी आचार्य के रूप में हरिभद्र का मुख्य प्रचलित अन्धविश्वासों की हरिभद्र द्वारा की गई शिष्ट समीक्षा को प्रस्तुत उद्देश्य था जैन-संघ में उनके युग में जो विकृतियाँ आ गयी थीं, उन्हें करूँगा। दूर करना । अत: उन्होंने अपने ही पक्ष की कमियों को अधिक गम्भीरता हरिभद्र की कान्तदर्शी दृष्टि जहाँ एक ओर अन्य धर्म एवं दर्शनों से देखा । जो सच्चे अर्थ में समाज-सुधारक होता है, जो सामाजिक में निहित सत्य को स्वीकार करती है, वहीं दूसरी ओर उनकी अयुक्तिसंगत जीवन में परिवर्तन लाना चाहता है, वह प्रमुख रूप से अपनी ही कमियो कपोलकल्पनाओं की व्यंग्यात्मक शैली में समीक्षा भी करती है। इस सम्बन्ध को खोजता है । हरिभद्र ने इस रूप में सम्बोधप्रकरण में एक में उनका धूर्ताख्यान नामक ग्रन्थ विशेष महत्त्वपूर्ण है । इस ग्रन्थ की रचना क्रान्तिकारी की भूमिका निभाई है । क्रान्तिकारी के दो कार्य होते हैं, का मुख्य उद्देश्य भारत (महाभारत), रामायण और पुराणों की काल्पनिक एक तो समाज में प्रचलित विकृत मान्यताओं की समीक्षा करना और और अयुक्तिसंगत अवधारणाओं की समीक्षा करना है। यह समीक्षा उन्हें समाप्त करना, किन्तु मात्र इतने से उसका कार्य पूरा नहीं होता व्यंग्यात्मक शैली में है । धर्म के सम्बन्ध में कुछ मिथ्या विश्वास युगों से रहे है । उसका दूसरा कार्य होता है सत् मान्यताओं को प्रतिष्ठित या पुनः हैं, फिर भी पुराण-युग में जिस प्रकार मिथ्या-कल्पनाएँ प्रस्तुत की गईं - प्रतिष्ठित करना । हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र ने दोनों बातों को वे भारतीय मनीषा के दिवालियेपन की सूचक सी लगती हैं । इस पौराणिक अपनी दृष्टि में रखा है।
प्रभाव से ही जैन-परम्परा में भी महावीर के गर्भ-परिवर्तन, उनके अंगूठे को उन्होंने अपने ग्रन्थ सम्बोधप्रकरण में देव,गुरु, धर्म, श्रावक आदि दबाने मात्र से मेरु-कम्पन जैसी कुछ चामत्कारिक घटनाएँ प्रचलित हुईं। का सम्यक् स्वरूप कैसा होना चाहिए, इसकी भी विस्तृत व्याख्या की है। यद्यपि जैन-परम्परा में भी चक्रवर्ती, वासुदेव आदि की रानियों की संख्या हरिभद्र ने जहाँ वेशधारियों की समीक्षा की है, वहीं आगमोक्त दृष्टि से गुरु एवं उनकी सेना की संख्या, तीर्थङ्करों के शरीर-प्रमाण एवं आयु आदि के कैसा होना चाहिये, इसकी विस्तृत विवेचना भी की है। हम उसके विस्तार विवरण सहज विश्वसनीय तो नहीं लगते हैं, किन्तु तार्किक असंगति से युक्त में न जाकर संक्षेप में यह कहेंगे कि हरिभद्र की दृष्टि में जो पाँच महाव्रतों, नहीं हैं । सम्भवत: यह सब भी पौराणिक परम्परा का प्रभाव था जिसे जैनपाँच समितियों, तीन गुप्तियों के पालन में तत्पर है जो जितेन्द्रिय, संयमी, परम्परा को अपने महापुरुषों की अलौकिकता को बताने हेतु स्वीकार करना परिषहजयी, शुद्ध आचरण करने वाला और सत्य मार्ग को बताने वाला है, पड़ा था, फिर भी यह मानना होगा कि जैन-परम्परा में ऐसी कपोलवही सुगुरु है ।
कल्पनाएँ अपेक्षाकृत बहुत ही कम हैं । साथ ही महावीर के गर्भहरिभद्र के युग में गुरु के सम्बन्ध में एक प्रकार का वैयक्तिक परिवर्तन की घटना, जो मुख्यत: ब्राह्मण की अपेक्षा क्षत्रिय की श्रेष्ठता
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