Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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-यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म -
शत्रुञ्जय, पावागिरि आदि तीर्थ हैं और कर्मक्षय का कारण होने से वे धार्मिक कृत्य माना जाता है । इसके विपरीत जैन-परम्परा में तीर्थ स्थल व्यवहारतीर्थ भी वन्दनीय माने गये हैं। इस प्रकार दिगम्बर-परम्परा में को अपने आप में पवित्र नहीं माना गया, अपितु यह माना गया कि भी साधनामार्ग और आत्मविशुद्धि के कारणों को निश्चयतीर्थ और तीर्थंकर अथवा अन्य त्यागी-तपस्वी महापुरुषों के जीवन से सम्बन्धित पंचकल्याणक भूमियों को व्यवहार-तीर्थ माना गया है । मूलाचार में भी होने के कारण वे स्थल पवित्र बने हैं । जैनों के अनुसार कोई भी स्थल यह कहा गया है कि दाहोपशमन, तृषानाश और मल की शुद्धि ये-तीन अपने आप में पवित्र या अपवित्र नहीं होता, अपितु वह किसी महापुरुष कार्य जो करते हैं वे द्रव्यतीर्थ हैं 'किन्तु जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र से से सम्बद्ध होकर या उनका सान्निध्य पाकर पवित्र माना जाने लगता है, युक्त जिनदेव हैं वे भावतीर्थ हैं' यह भावतीर्थ ही निश्चयतीर्थ है। कल्याण यथा - कल्याणक भूमियाँ, जो तीर्थङ्कर के गर्भ जन्म, दीक्षा कैवल्य या भूमि तो व्यवहारतीर्थ है । इस प्रकार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही निर्वाणस्थल होने से पवित्र मानी जाती है । बौद्ध-परम्परा में भी बुद्ध के परम्पराओं में प्रधानता तो भावतीर्थ या निश्चयतीर्थ को ही दी गई है, जीवन से सम्बन्धित स्थलों को पवित्र माना गया हैं। किन्तु आत्मविशुद्धि के हेतु या प्रेरक होने के कारण द्रव्यतीर्थों या हिन्दू और जैन परम्परा में दूसरा महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि व्यवहारतीर्थों को भी स्वीकार किया गया है । स्मरण रहे कि अन्य धर्म- जहाँ हिन्दू-परम्परा में प्रमुखतया नदी-सरोवर आदि को तीर्थ रूप में परम्पराओं में जो तीर्थ की अवधारणा उपलब्ध है, उसकी तुलना जैनों स्वीकार किया गया है वहीं जैन-परम्परा में सामान्यतया किसी नगर के द्रव्यतीर्थ से की जा सकती है।'
अथवा पर्वत को ही तीर्थस्थल के रूप में स्वीकार किया गया। यह अन्तर
भी मूलत: तो किसी स्थल को स्वत: पवित्र मानना या किसी प्रसिद्ध जैन-परम्परा में तीर्थ शब्द का अर्थ-विकास
महापुरुष के कारण पवित्र मानना - इसी तथ्य पर आधारित है । पुनः श्रमण-परम्परा में प्रारम्भ में तीर्थ की इस अवधारणा को एक इस अन्तर का एक प्रसिद्ध कारण यह भी है- जहाँ हिन्दू परम्परा में आध्यात्मिक अर्थ प्रदान किया गया था। विशेषावश्यकभाष्य जैसे प्राचीन बाह्य-शौच (स्नानादि, शारीरिक शुद्धि) की प्रधानता थी, वहीं जैनआगमिक व्याख्या-ग्रन्थों में भी वैदिक परम्परा में मान्य नदी, सरोवर परम्परा में तप और त्याग द्वारा आत्मशुद्धि की प्रधानता थी, स्नानादि तो आदि स्थलों को तीर्थ मानने की अवधारणा का खण्डन किया गया और वर्त्य ही माने गये थे। अत: यह स्वाभाविक था कि जहाँ हिन्दूं-परम्परा उसके स्थान पर रत्नत्रय से युक्त साधनामार्ग अर्थात् उस साधना में चल में नदी-सरोवर तीर्थ रूप में विकसित हुए, वहाँ जैन-परम्परा में साधनारहे साधक के संघ को तीर्थ के रूप में अभिहित किया गया है । यही स्थल के रूप में वन-पर्वत आदि तीर्थों के रूप में विकसित हुए । यद्यपि दृष्टिकोण अचेल-परम्परा के ग्रन्थ मूलाचार में भी देखा जाता है, जिसका आपवादिक रूप में हिन्दू-परम्परा में भी कैलाश आदि पर्वतों को तीर्थ उल्लेख पूर्व में हम कर चुके हैं।
माना गया, वहीं जैन-परम्परा में शत्रुजय नदी आदि को पवित्र या तीर्थ किन्तु परवर्ती काल में जैन-परम्परा में तीर्थ सम्बन्धी अवधारणा के रूप में माना गया है, किन्तु यह इन परम्पराओं के पारस्परिक प्रभाव में परिवर्तन हुआ और द्रव्य तीर्थ अर्थात् पवित्र स्थलों को भी तीर्थमाना का परिणाम था । पुनः हिन्दू-परम्परा में जिन पर्वतीय स्थलों जैसे कैलाश गया। सर्वप्रथम तीर्थङ्करों के गर्भ, जन्म, दीक्षा, कैवल्य और निर्वाण से आदि को तीर्थ रूप में माना गया उनके पीछे भी किसी देव का निवाससम्बन्धित स्थलों को पूज्य मानकर उन्हें तीर्थ के रूप में स्वीकार किया स्थान या उसकी साधनास्थली होना ही एकमात्र कारण था, किन्तु यह गया । आगे चलकर तीर्थङ्करों के जीवन की प्रमुख घटनाओं से निवृत्तिमार्गी परम्परा का ही प्रभाव था । दूसरी ओर हिन्दू-परम्परा के सम्बन्धित स्थल ही नहीं अपितु गणधर एवं प्रमुख मुनियों के निर्वाणस्थल प्रभाव से जैनों में भी यह अवधारण बनी कि यदि शत्रुजय नदी में स्नान
और उनके जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना से जुड़े हुए स्थल भी तीर्थ के नहीं किया तो मानव जीवन ही निरर्थक हो गया। रूप मे स्वीकार किये गये। इससे भी आगे चलकर वे स्थल भी, जहाँ 'सतरूंजी नदी नहायो नहीं, तो गयो मिनख जमारो हार'। कलात्मक मन्दिर बने या जहाँ की प्रतिमाएँ चमत्कारपूर्ण मानी गयीं, तीर्थ कहे गये।
तीर्थ और तीर्थयात्रा
पूर्व विवरण से स्पष्ट है कि जैन-परम्परा में 'तीर्थ' शब्द के हिन्दू और जैनतीर्थ की अवधारणाओं में मौलिक अन्तर अर्थ का ऐतिहासिक विकास-क्रम है । सर्वप्रथम जैन धर्म में गंगा आदि
यह सत्य है कि कालान्तर में जैनों ने हिन्दू-परम्परा के समान लौकिक तीर्थों की यात्रा तथा वहाँ स्नान, पूजन आदि को धर्म साधना ही कुछ स्थलों को पवित्र और पूज्य मानकर उनकी पूजा और यात्रा को की दृष्टि से अनावश्यक माना गया और तीर्थ शब्द को आध्यात्मिक अर्थ महत्त्व दिया, किन्तु फिर भी दोनों अवधारणाओं में मूलभूत अन्तर है। प्रदान कर आध्यात्मिक साधना मार्ग को तथा उस साधना का अनुपालन हिन्दू-परम्परा नदी, सरोवर आदि को स्वत: पवित्र मानती है, जैसे- करने वाले साधकों के संघ को ही तीर्थ के रूप में स्वीकार किया गया। गंगा। यह नदी किसी ऋषि-मुनि आदि के जीवन की किसी घटना से किन्तु कालान्तर में जैन-परम्परा में भी तीर्थङ्करों की कल्याणक भूमियों सम्बन्धित होने के कारण नहीं, अपितु स्वतः ही पवित्र है । ऐसे पवित्र को पवित्र स्थानों के रूप में मान्य करके तीर्थ की लौकिक अवधारणा स्थल पर स्नान, पूजा-अर्चना, दान-पुण्य एवं यात्रा आदि करने को एक का विकास हुआ । ई०पू० में रचित अति प्राचीन जैन-आगमों जैसे
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