Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार क्रमभाव होते हैं उन्हें ही अविनाभाव कहते हैं। सहभाव उसे व्याप्ति और प्रत्यक्ष - व्याप्ति संबंध को प्रत्यक्ष से ग्रहण कह. हैं जब दो वस्तुएँ हमेशा एक साथ देखी जाती हैं और क्रमभाव उसे कहते हैं जब दो घटनाएँ हमेशा ही क्रम में देखी करता है। इसका संबंध वर्तमान से होता है। किन्तु व्याप्ति सार्वकालिक जाती हैं अर्थात् एक के होने पर दूसरी उसके बाद अवश्य घटती होती है। इसलिए व्याप्ति का प्रत्यक्षीकरण नहीं हो सकता। है। सहभाव के दो प्रकार होते हैं--(१) सहकारी संबंध-जैसे .
व्याप्ति और अनुमान-अनुमान से भी व्याप्ति का बोध
ती रूप रस का एक साथ पाया जाना। (२) व्यापत और व्यापक नहीं हो सकता. क्योंकि अनमान तो स्वयं तर्क पर आधारित संबंध जैसे छात्रत्व और मनुष्यत्व।
होता है। तर्क द्वारा प्रतिष्ठित व्याप्ति-संबंध ही अनुमान की क्रमभाव के भी दो प्रकार होते हैं--(१) पूर्ववर्ती और आधारशिला है। परवर्ती के बीच का क्रमभाव जैसे- रविवार के बाद सोमवार
अतः तर्क को प्रत्यक्ष और अनुमान के अंतर्गत समाहित का आना। (२) कार्य-कारण संबंध जैसे धूम और अग्नि का नहीं किया जा सकता. यह एक स्वतंत्र प्रमाण है. ऐसा जैन संबंध।
चिंतक मानते हैं। जैन विचारकों के मत में तर्क का कौन सा व्याप्ति-व्याप्तिज्ञान को जैनदर्शन में तर्क कहा गया है स्वरूप है और कितना इसका महत्त्व है, उसे हम संक्षिप्त में डा. ३४। अत: यह समस्या उठती है कि व्याप्ति क्या है। व्याप्य और सागरमल जैन के शब्दों में समझ सकते हैं व्यापक के बीच पाया जाने वाला संबंध व्याप्ति के नाम से "वस्तुत: तर्क को अन्तर्बोधात्मक ज्ञान अर्थात् प्रातिभज्ञान जाना जाता है। इसके संबंध में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है ५-- कहना इसलिए आवश्यक है कि उसकी प्रकति इंद्रियानभावात्मक व्याप्तिापकस्य व्याप्ये सतिभाव एव, व्याप्यस्य वा तत्रैव भावः।
ज्ञान अर्थात् लौकिक प्रत्यक्ष (Empirical Knowledge or व्याप्य के रहने पर व्यापक का रहना तथा व्यापक के Pereception) से और बौद्धिक निगमनात्मक (Deductive inरहने पर ही व्याप्य का रहना ही व्याप्ति-संबंध है। धूम और ference) दोनों से भिन्न है। तर्क अतीन्द्रिय (Non-Empirical) अग्नि में व्याप्य और व्यापक का संबंध है। अतः जब धूम रहता और अति बौद्धिक (Super Rational) है क्योंकि वह अतीन्द्रिय है तो अग्नि रहती है और जब अग्नि रहती है तो धूम रहता है। एवं अमूर्त संबंधों (Non-empirical Relations) को अपने ज्ञान धूम के बिना अग्नि के नहीं हो सकता यद्यपि कभी-कभी अग्नि का विषय बनाता है। उसके विषय हैं--जाति-उपजाति संबंध, होती है पर धूम नहीं होता। किन्तु धूम होने का मतलब ही होता जाति-व्यक्ति संबंध, सामान्य-विशेष संबंध, कार्य-कारण संबंध है कि अग्नि है।
आदि। वह आपादान (Implication), अनुवर्तिता (Entailment), इस प्रकार उपलम्भ, अनुपलम्भ, अविनाभाव तथा व्याप्ति वग सदस्यता (Class-Membership), कार्य-कारणता (Cauसंबंध एक ही है, यद्यपि समझने, समझाने में इन्हें विभिन्न नामों sality) और सामान्यता (Universality) का ज्ञान है।" से प्रस्तुत किया जाता है। ये ही तर्क अथवा तर्क के विषय हैं। जैन दर्शन में तर्क तथा व्याप्ति की एक और विशेषता यह यह व्याप्ति सार्वकालिक तथा सार्वलौकिक होती है। धूम और बताई गई है-"व्याप्ति ग्रहण करने वाले योगीव प्रमाता।" अग्नि के संबंध को यद्यपि कोई व्यक्तिविशेष किसी समय
अर्थात् जिस समय प्रमाता व्याप्ति का बोध करता है, वह अथवा स्थान विशेष पर देखकर उसका ज्ञान प्राप्त करता है, ,
___ योगी के समान हो जाता है, क्योंकि सार्वकालिक और किन्तु यह संबंध तब से है जबसे धूम और अग्नि हैं और जहाँ
सार्वलौकिक वस्तु को योगी के सिवा अन्य कोई ग्रहण नहीं कर कहीं भी धूम तथा अग्नि होगी वहाँ यह संबंध देखा जाएगा।
सकता। अतः व्याप्ति-ग्रहण की अवस्था योगावस्था है। अत: यह सभी समय और सभी स्थान के लिए है। इसे किसी समय विशेष तथा स्थान विशेष के अंतर्गत सीमित नहीं कर
समीक्षा-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तथा तर्क-संबंधी विभिन्न
विचार-विमर्शों को देखने के बाद जैन-दर्शन के संबंध में जो सकते।
सामान्य धारणा बनती है, वह इस प्रकार है--अन्य दर्शन स्मृति
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