Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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जैन धर्म का एक विलुप्त सम्प्रदायःयापनीय
सामान्यतया आज विद्वर्ग और जन-साधारण जैन धर्म के शब्द के अनेक रूप उपलब्ध होते हैं यथा-यापनीय, जापनीय, यपनी, दो प्रमुख सम्प्रदायों-श्वेताम्बर और दिगम्बर से ही परिचित हैं किन्तु आपनीय, यापुलिय, आपुलिय, जापुलिय, जावुलीय, जाविलिय, जावलिय, उसका ‘यापनीय' नामक एक अन्य महत्त्वपूर्ण सम्प्रदाय भी था, जो ई० जावलिगेय, आदि-आदि । सर्वप्रथम 'यापनीय' शब्द का प्रयोग हमें सन् की दूसरी शती से पन्द्रहवीं शताब्दी तक (लगभग १४०० वर्ष) जैन आगम-साहित्य और पाली त्रिपिटक-साहित्य में प्राप्त होता है। जीवित रहा और जिसने न केवल अनेक जिन-मन्दिर बनवाये एवं प्राकृत और पाली-साहित्य में 'यापनीय' शब्द का प्रयोग कुशल-क्षेम मूर्तियाँ स्थापित की, अपितु जैन-साहित्य-क्षेत्र में और विशेषकर शौरसेनी पूछने के प्रसंग में ही हुआ है । दूसरों से कुशल-क्षेम पूछते समय यह जैन-साहित्य के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण अवदान प्रदान किया । यह पूछा जाता था कि आपका ‘यापनीय' कैसा है (किं यापनीयं ?) । सम्प्रदाय आज से ५० वर्ष पूर्व तक जैन-समाज के लिए पूर्णत: अज्ञात 'भगवती' नामक जैन-आगम में यापनीय का प्राकृत रूप 'जावनिच्च' बना हुआ था । संयोग से विगत ५० वर्षों की शोधात्मक प्रवृत्तियों के प्राप्त होता है । भगवती में सोमिल नामक ब्राह्मण भगवान महावीर से कारण इस सम्प्रदाय के कुछ अभिलेख एवं ग्रन्थ प्रकाश में आये हैं। प्रश्न करता है- हे भन्ते ! आपकी यात्रा कैसी हुई ? आपका यापनीय फिर भी अभी तक इस सम्प्रदाय पर चार-पाँच लेखों के अतिरिक्त कोई कैसा है ? आपका स्वास्थ्य (अव्वावह) कैसा है ? आपका विहार कैसा भी विशेष सामग्री प्रकाशित नहीं हुई है । सर्वप्रथम प्रो० ए. एन उपाध्ये है ? भगवती और ज्ञाताधर्मकथा में इस प्रसंग में दो प्रकार से एवं पं० नाथूराम जी प्रेमी ने ही इस सम्बन्ध में कुछ लेख प्रकाशित यापनीयों की चर्चा हुई है - इन्द्रिय-यापनीय और नो-इन्द्रिय यापनीय । किये थे । किन्तु उनके पश्चात् इस दिशा में पुनः उदासीनता आ गई इन्द्रिय-यापनीय की व्याख्या करते हुए भगवान् महावीर ने कहा था कि है। प्रस्तुत लेख उसी उदासीनता को तोड़ने का एक प्रयास मात्र है। मेरी श्रोत्र आदि पाँचों इन्द्रियाँ व्याधिरहित एवं मेरे नियन्त्रण में हैं। इसी आशा है जैन-विद्या के विद्वान् इस दिशा में सक्रिय होंगे। प्रकार नो-इन्द्रिय यापनीय को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था कि मेरे
आज विशृङ्खलित होते हुए जैन समाज के लिए इस सम्प्रदाय क्रोध, मान, माया, लोभ विच्छिन्न या निर्मूल हो गये हैं, अब वे का ज्ञान और भी आवश्यक है क्योंकि इस सम्प्रदाय की मान्यताएँ आज अभिव्यक्त या प्रकट नहीं होते हैं ? भी जैनधर्म की दिगम्बर और श्वेताम्बर शाखाओं के बीच योजक कड़ी उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता बन सकती हैं । दुर्भाग्य से आज भी अनेक जैन विद्वान् और मुनिजन है कि भगवतीसूत्र में इन्द्रिय और मन की नियन्त्रित एवं शान्त स्थिति यह नहीं जानते हैं कि एक ऐसा सम्प्रदाय जो श्वेताम्बर और दिगम्बर के के अर्थ में ही यापनीय शब्द का प्रयोग हुआ है । इन्द्रियों की वृत्तियों मध्य एक योजक कड़ी के रूप में विद्यमान था एवं लगभग १४०० और मन की वासनाओं का शान्त एवं नियन्त्रित होना ही यापनीय की वर्षों तक अपने को जीवित बनाये रखकर आज से ६०० वर्ष पूर्व काल कुशलता का सूचक है । वस्तुत: यह मनुष्य के मानसिक कुशल-क्षेम के गर्भ में ऐसा विलीन हो गया कि आज लोग उसका नाम तक नहीं का सूचक है। 'किं जवणिच्च' का अर्थ है आपकी मनोदशा कैसी है ? जानते हैं। आज जैन धर्म में 'यापनीय' परम्परा का कोई भी अनुयायी अत: यापनीय शब्द मनोदशा (Mood) या मानसिक स्थिति (Mental नहीं है । यह परम्परा आज मात्र इतिहास की वस्तु बनकर रह गयी है state) का सूचक है । इस शब्द का प्रयोग मन की प्रसन्नता को जानने किन्तु इनके द्वारा स्थापित मन्दिर एवं मूर्तियाँ तथा सृजित साहित्य के लिए प्रश्न के रूप में किया जाता था। सहज ही आज हमें उसका स्मरण करा देते हैं। आज जब जैनधर्म में बौद्ध पाली-साहित्य में भी इस शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में भी साम्प्रदायिक अभिनिवेश दृढमूल होता जा रहा है, यापनीय संघ के हुआ है । भगवान बुद्ध का अपने ग्राम में आगमन होने पर भृगु, इतिहास और उनकी मान्यताओं का बोध न केवल जैन संघ में समन्वय भगवान से पूछते हैं कि हे भिक्षु ! आपका क्षमा-भाव कैसा है ? का सूत्रपात कर सकता है, वरन् टूटते हुए जैन संघ को पुनः एकता की आपका यापनीय कैसा है ? आपको आहार आदि के लाभ में कोई कड़ी में जोड़ सकता है । वस्तुत: 'यापनीय' परम्परा वह सेतु है जो कठिनाई तो नहीं है ? प्रत्युत्तर में भगवान बुद्ध ने कहा, मेरा क्षमा-भाव श्वेताम्बर और दिगम्बर के बीच की खाई को पाटने में आज भी (क्षमनीय) अच्छा है, मेरा यापनीय सुन्दर है । मुझे आहार-लाभ में कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है । अग्रिम पंक्तियों में हम ऐसे कठिनाई नहीं है । इस प्रकार यहाँ भी यापनीय शब्द जीवन-यात्रा के महत्त्वपूर्ण और समन्वयवादी सम्प्रदाय के सन्दर्भ में गवेषणात्मक दृष्टि कुशल-क्षेम के सन्दर्भ में ही प्रयुक्त हुआ है । 'किच्च यापनीय' का अर्थ से कुछ विचार करने का प्रयत्न करेंगे।
है आपकी जीवन-यात्रा कैसी चल रही है ?
इस प्रकार हम देखते है कि जहाँ पाली-साहित्य में 'यापनीय' यापनीय शब्द का अर्थ
शब्द जीवन-यात्रा के सामान्य अर्थ का सूचक है । वहाँ जैन-साहित्य में भाषा एवं उच्चारण-भेद के आधार पर आज हमें ‘यापनीय' वह इन्द्रियों एवं मन की वृत्तियों या मनोदशा का सूचक है, भगवती
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