Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
View full book text
________________
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ- जैन साधना एवं आचार
भी जाना जाता है। वर्तमान में यह पर्व आठ दिनों तक मनाया जाता है इसलिए इसे अष्टात्रिक अर्थात् आठ दिनों का पर्व भी कहते हैं।
दशलक्षण पर्व
दिगम्बर- परम्परा में इसका प्रसिद्ध नाम दशलक्षण पर्व है। दिगम्बरपरम्परा में भाद्र शुक्ल पञ्चमी से भाद्र शुक्ल चतुर्दशी तक दश दिनों में, धर्म के दस लक्षणों की क्रमशः विशेष साधना की जाती है, इसे दशलक्षण पर्व कहते हैं।
अतः
पर्युषण (संवत्सरी) पर्व कब और क्यों?
,
प्राचीन प्रन्थों विशेष रूप से कल्पसूत्र एवं निशीथ के देखने से यह स्पष्ट होता है कि पर्युषण मूलतः वर्षावास की स्थापना का पर्व था। यह वर्षावास की स्थापना के दिन मनाया जाता था। उपवास, केशलोच, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण एवं प्रायचित क्षमायाचना (कषायउपशमन) और पज्जोसवणाकप्प (पर्युषण कल्पकल्पसूत्र) का पारायण उस दिन के आवश्यक कर्तव्य थे। इस प्रकार पर्युषण एक दिवसीय पर्व था । यद्यपि निशीथचूर्णि के अनुसार पर्युषण के अवसर पर तेला (अष्टम भक्त=तीन दिन का उपवास) करना आवश्यक था। उसमें स्पष्ट उल्लेख है कि 'पज्जोसवणाए अट्ठम न करेइ तो चउगुरु' अर्थात् जो साधु पर्युषण के अवसर पर तेला नहीं करता है तो उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित आता है। " इसका अर्थ है कि पर्युषण की आराधना का प्रारम्भ उस दिन के पूर्व भी हो जाता था। जीवाभिगमसूत्र के अनुसार पर्युषण एक अठाई महोत्सव (अष्ट दिवसीय पर्व) के रूप में मनाया जाता था। उसमें उल्लेख है कि चातुर्मासिक पूर्णिमाओं एवं पर्युषण के अवसर पर देवतागण नन्दीश्वर द्वीप में जाकर अष्टाह्निक महोत्सव मनाया करते हैं। " दिगम्बर- परम्परा में आज भी आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन की पूर्णिमाओं (चातुर्मासिक पूर्णिमाओं) के पूर्व अष्टाह्निक पर्व मनाने की प्रथा है। लगभग आठवीं शताब्दी से दिगम्बर- साहित्य में इसके उल्लेख मिलते हैं। प्राचीनकाल में पर्युषण आषाढ़ पूर्णिमा को मनाया जाता था और उसके साथ ही अष्टाह्निक महोत्सव भी होता था। हो सकता है कि बाद में जब पर्युषण भाद्र शुक्ल चतुर्थी / पञ्चमी को मनाया जाने लगा तो उसके साथ भी अष्ट-दिवस जुड़े रहे और इसप्रकार वह अष्ट दिवसीय पर्व बन गया।
वर्तमान में पर्युषण पर्व का सबसे महत्त्वपूर्ण दिन संवत्सरी पर्व माना जाता है। समवायानसूत्र के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा से एक मास और बीस रात्रि पश्चात् भाद्रपद अर्थात् शुक्ल पञ्चमी को पर्युषण सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कर लेना चाहिये। निशीथ के अनुसार पचासवीं रात्रि का उल्लङ्घन नहीं करना चाहिये। उपवासपूर्वक सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना, श्रमण का आवश्यक कर्तव्य तो था ही, लेकिन निशीथचूर्णि में उदयन और चण्डप्रद्योत के आख्यान से ऐसा लगता है कि वह गृहस्थ के लिए भी अपरिहार्य था। लेकिन मूल प्रश्न यह है कि यह सांवत्सरिक पर्व कब किया जाय ? सांवत्सरिक पर्व के दिन समय वर्ष के अपराधों और भूलों का प्रतिक्रमण करना होता है, अतः
Jain Education International
इसका समय वर्षान्त ही होना चाहिये । प्राचीन परम्परा के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा को वर्ष का अन्तिम दिन माना जाता था । श्रावण बदी प्रतिपदा से नव वर्ष का आरम्भ होता था। भाद्र शुक्ल चतुर्थी या पश्चमी को किसी भी परम्परा (शास्त्र) के अनुसार वर्ष का अन्त नहीं होता । अतः भाद्र शुक्ल पञ्चमी को सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की वर्तमान परम्परा समुचित प्रतीत नहीं होती। प्राचीन आगमों में जो देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण का उल्लेख है, उसको देखने से ऐसा लगता है कि उस अवधि के पूर्ण होने पर ही तत् सम्बन्धी प्रतिक्रमण (आलोचना) किया जाता था। जिस प्रकार आज भी दिन की समाप्ति पर देवसिक, पक्ष की समाप्ति पर पाक्षिक, चातुर्मास की समाप्ति पर चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किया जाता है, उसी प्रकार वर्ष की समाप्ति पर सांवत्सरिक प्रतिक्रमण किया जाना चाहिये । प्रश्न होता है कि सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की यह तिथि भिन्न कैसे हो गई? निशीथचूर्णि में जिनदासगणि ने स्पष्ट लिखा है कि पर्युषण पर्व पर वार्षिक आलोचना करनी चाहिये। (पज्जोसवनासु वरिसिया आलोयणा दायिवा)। चूँकि वर्ष की समाप्ति आषाढ़ पूर्णिमा को ही होती है, इसलिए आषाढ़ पूर्णिमा को पर्युषण अर्थात् सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना चाहिए। निशीयभाष्य में स्पष्ट उल्लेख है— आषाढ़ पूर्णिमा को ही पर्युषण करना उत्सर्ग सिद्धान्त है।
सम्भवत: इस पक्ष के विरोध में समवायाङ्ग और आयारदशा ( दशाश्रुतस्कन्ध) के उस पाठ को प्रस्तुत किया जा सकता है जिसके अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा के एक मास और बीस रात्रि के व्यतीत हो जाने पर पर्युषण करना चाहिए। चूँकि कल्पसूत्र के मूल पाठ में यह भी लिखा हुआ है कि श्रमण भगवान् महावीर ने आषाढ़ पूर्णिमा से एक मास और बीस रात्रि के व्यतीत हो जाने पर वर्षावास (पर्युषण) किया था उसी प्रकार गणधरों ने किया स्थविरों ने किया और उसी प्रकार वर्तमान श्रमण निर्मन्थ भी करते हैं। निश्चित रूप से यह कथन भाद्र शुक्ल पञ्चमी को पर्युषण करने के पक्ष में सबसे बड़ा प्रमाण है। लेकिन हमें यह विचार करना होगा कि क्या यह अपवाद-मार्ग था या उत्सर्ग मार्ग था? यदि हम कल्पसूत्र के उसी पाठ को देखें तो उसमें यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि इसके पूर्व तो पर्युषण एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना कल्पता है, किन्तु वर्षा ऋतु के एक मास और बीस रात्रि का अतिक्रमण करना नहीं कल्पता है- 'अंतरा वि य कप्प (पज्जोसवित्तए) नो से कप्पड़ तं स्यणि उवाइणा वित्तए।' निशीथचूर्णि में और कल्पसूत्र की टीकाओं में भाद्र शुक्ल चतुर्थी को पर्युषण या संवत्सरी करने का कालक आचार्य की कथा के साथ जो उल्लेख है वह भी इस बात की पुष्टि करता है कि भाद्र शुक्ल पञ्चमी के पूर्व तो पर्युषण किया जा सकता है किन्तु उस तिथि का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है। निशीवचूर्णि में स्पष्ट लिखा है कि 'आसाद पूर्णिमाए पज्जोसेवन्ति एस उसग्गो सेस कालं पज्जोसेवन्ताणं अववातो अवताते वि सबीससतिरातमासात परेण अतिकम्मेण वदृति सवसतिराते मासे पुण्णे जति वासखेतं लब्भति तो रूक्ख हेावि पज्जोसवेयव्वं तं पुण्णमाए पश्चमीए दसमीए एवमाहि पव्वेसु
११९
For Private & Personal Use Only
comfricarica
www.jainelibrary.org