Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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दिया और इस प्रकार भारतीय संस्कृति की एकात्मता को खण्डित किया यदि हमें भारतीय संस्कृति का प्रामाणिक इतिहास प्रस्तुत करना है तो यह आवश्यक है कि हमारे सांस्कृतिक इतिहास का एक समन्वित और समग्र दृष्टिकोण के आधार पर पुनर्मूल्यांकन हो।
-यतीन्द्रसूरि स्मारकमान्य आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
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आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ अध्ययन जैन- दृष्टिकोण किसी भी व्याख्या या अध्ययन के दो पक्ष होते हैं१. आत्मनिष्ठ और २. वस्तुनिष्ठ । आत्मनिष्ठ व्याख्या में व्याख्याता का अपना दृष्टिकोण प्रधान होता है और वह अपने दृष्टिकोण के अनुरूप तथ्यों को व्याख्यायित करता है जबकि वस्तुनिष्ठ व्याख्या में तथ्य / घटनाक्रम प्रधान होता है और व्यक्ति निरपेक्ष होकर उसे व्याख्यायित करता है, फिर भी इतना निश्चित है कि व्याख्या व्याख्याता से पूर्णतः निरपेक्ष नहीं हो सकती है। व्याख्या में तथ्य / घटनाक्रम और व्याख्याता व्यक्ति दोनों ही आवश्यक हैं। अतः कोई भी व्याख्या एकान्त रूप से आत्मनिष्ठ या वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकती है। उसके आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ दोनों ही पक्ष होते हैं।
ऐतिहासिक अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि उसका अध्ययन और ऐतिहासिक तथ्यों का मूल्यांकन वस्तुनिष्ठ आधार पर हो दूसरे शब्दों में प्रामाणिक इतिहास-लेखन, अध्ययन और मूल्यांकन के लिए वस्तुनिष्ठ या तथ्यपरक अनाग्रही दृष्टि आवश्यक है, इसमें किसी प्रकार का वैमत्य नहीं है। इतिहास लेखन, अध्ययन एवं मूल्यांकन सभी व्यक्ति से संबंधित है और व्यक्ति चाहे कितना ही तटस्थ और अनामही क्यों न हो, फिर भी उसमें कहीं न कहीं आत्मनिष्ठ पक्ष का प्रभाव तो रहता ही है। ऐसे व्यक्ति तो विरल ही होते हैं जो निरपेक्ष और तटस्थ हों। दूसरे, इतिहास-लेखन घटनाओं की व्याख्या है और इस व्याख्या में आत्मनिष्ठ पक्ष की पूर्ण उपेक्षा भी संभव नहीं है। जैन दार्शनिकों ने अपने अनेकान्त सिद्धान्त के द्वारा यह स्थापित किया था कि प्रत्येक वस्तु तथ्य और घटना अपने आप में जटिल और बहुआयामी होती है, उसकी व्याख्या अनेक दृष्टिकोणों के आधार पर संभव है। उदाहरण के रूप में ताजमहल का निर्माण एक ऐतिहासिक घटना है किन्तु ताजमहल निर्माता के चरित्र की व्याख्या विभिन्न रुचियों के व्यक्तियों के द्वारा विभिन्न प्रकार से की जा सकती है। किसी के लिए यह कला का उत्कृष्ट प्रेमी हो सकता है तो किसी के लिए वह प्रेयसी के प्रेम में अनन्य आसक्त कोई उसे अपना विलासी तो कोई उसे जनशोषक भी कह सकता है। इस प्रकार एक तथ्य की व्याख्या भिन्न-भिन्न प्रकार से हो सकती है।
तथ्यों की जटिलता एक सत्य
तथ्य की जटिलता और व्याख्या सम्बन्धी विभिन्न दृष्टिकोण की संभावना ये दो ऐसे तथ्य है जिन पर ऐतिहासिक मूल्यांकन निर्भर करता है। जिसे आज 'हिस्ट्रीओग्राफी' कहा जाता है वह अन्य कुछ नही अपितु ऐतिहासिक तथ्यों की व्याख्या के विभिन्न सिद्धातों के मूल्यांकन का शास्त्र
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हैं। यह मूल्यांकन विभिन्न दृष्टिकोणों पर आधारित होता है। अतः हम यह कह सकते हैं कि जैनों का अनेकान्त सिद्धान्त ऐतिहासिक मूल्यांकन के क्षेत्र में भी पूर्णतः लागू होता है। हमें उन दृष्टिकोणों या सिद्धान्तों की सापेक्षता को समझना है जिसके आधार पर ऐतिहासिक मूल्यांकन होते हैं। जब तक ऐतिहासिक मूल्यांकन का हार्द नहीं समझ पायेंगे तब तक ऐतिहासिक मूल्यांकन एवं ऐतिहासिक घटनाओं की व्याख्या मात्र किसी एक दृष्टिकोण पर या किसी एक सिद्धान्त पर संभव नही है। इतिहास न तो पूर्ण वस्तुनिष्ठ (Objective) हो सकता है न पूर्ण आत्मनिष्ठ (Subjective) ही। जब भी हमें किसी इतिहास-लेखक की किसी घटनाक्रम की व्याख्या का अध्ययन करना होता है तो हमें यह देखना होगा कि उस व्यक्ति का दृष्टिकोण क्या है वह किन परिवेश और परिस्थितियों में उस व्याख्या को प्रस्तुत कर रहा है।
सहवर्ती परम्परा के प्रभाव और तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता
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यदि हम जैन-परम्परा के इतिहास को देखें तो हमें स्पष्ट रूप से यह दिखाई देता है कि किस प्रकार अन्य सहवर्ती धाराओं के प्रभाव से उसके ऐतिहासिक चरित्रों में पौराणिकता या अलौकिकता का प्रवेश होता गया और आचार और विचार के क्षेत्र में परिवर्तन आता गया। इसका सबसे अच्छा उदाहरण स्वयं भगवान महावीर का जीवन चरित्र ही है। महावीर के जीवनवृत्त संबंधी सबसे प्राचीन उल्लेख आचारांग के प्रथम एवं द्वितीय श्रुत स्कंध में तथा उसके बाद कल्पसूत्र में उपलब्ध होता है। तत्पश्चात् नियुक्ति, भाष्य और चूर्णी-साहित्य में उनके जीवन का चित्रण मिलता है। इनके बाद जैन-पुराणों और चरित्रकाव्यों में उनके जीवनवृत्त का चित्रण किया गया है। यदि हम उन सभी विवरणों को सामने रखकर तुलनात्मक दृष्टि से उनका अध्ययन करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि महावीर के जीवन में किस प्रकार क्रमश: अलौकिकताओं का प्रवेश होता गया। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के नवें अध्ययन में महावीर एक कठोर साधक हैं जो कठोर जीवनचर्या और साधना के द्वारा अपनी जीवन यात्रा को आगे बढ़ाते हैं. किन्तु आचारांग के द्वितीय श्रुत स्कंध से प्रारम्भ होकर कल्पसूत्र और परवर्ती महावीर चरितों में अलौकिकताओं का प्रवेश हो गया। अत: सामान्य रूप से प्राचीन भारतीय इतिहास और विशेष से जैन-इतिहास जो हमें पौराणिक ग्रंथों में उपलब्ध होता है, उसके ऐतिहासिक तथ्यों की खोज अत्यन्त सावधानीपूर्वक करना होगा। यह कहना उचित नहीं है कि समस्त पौराणिक आख्यान ऐतिहासिक न होकर मात्र काल्पनिक हैं। दूसरी ओर यह भी सत्य है कि पुराणों और चरितकाव्यों में काल्पनिक अंश इतना अधिक है कि उसमें से ऐतिहासिक तथ्यों को निकाल पाना एक दुरूह कार्य हैं। जो स्थिति हिन्दू-पुराणों की है वही स्थिति जैन पुराणों और चरित ग्रंथों की भी है। यह भी सत्य है कि जैन इतिहास के लेखन के लिए हमारे पास जो आधारभूत सामग्री है वह इन्हीं ग्रंथों में निहित है, किन्तु इस सामग्री का उपयोग अत्यन्त सावधानीपूर्वक करना होगा।
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