Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ अनेक व्यक्ति यह कहते है कि मदिरा तो टॉनिक है, इससे शारीरिक थकान मिटती है । सुस्ती दूर होती है और चुस्ती आती है, किन्तु यह उनकी मिथ्या धारणा है । मदिरा पान करने वाले व्यक्ति की शारीरिक शक्ति घट जाती है और वह शीघ्र ही थक भी जाता है । मदिरा पान से पेट की ज्ञानवाही और क्रियावाही नाड़ियाँ निश्चेष्ट हो जाती है, जिससे भूख का भान नहीं रहता । लाभ की अपेक्षा हानि होती है। पाचन संस्थान विकृत हो जाता है नशा उतरने के पश्चात् शरीर का अंग अंग शिथिल हो जाता है, इसलिए मद्यपान त्याज्य है। किसी भी स्थिति में उचित नहीं कहा जा सकता। आचार्य हरिभद्र ने मद्यपान के सोलह दोष इस प्रकार बताये हैं
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(१) शरीर विद्रूप होना (२) शरीर में विविध रोग उत्पन्न होना (३) परिवार में तिरस्कृत होना (४) समय पर कार्य करने की क्षमता न होना (५) अन्तर्मानस में द्वेष उत्पन्न होना (६) ज्ञान तन्तुओं का धुँधला हो जाना, (७) स्मृति का लोप हो जाना (८) बुद्धि भ्रष्ट होना (९) सज्जनों से संपर्क समाप्त हो जाना (१०) वाणी में कठोरता आना (११) नीच कुलोत्पन्न व्यक्तियों से संपर्क (१२) कुलहीनता, (१३) शक्ति ह्रास (१४) धर्म, (१५) अर्थ १६ काम इन तीनों का नाश होना ।
महाकवि कालिदास ने जब एक मदिरा विक्रेता से पूछा कि उसके पात्र में क्या है तो उसने उत्तर दिया कि उसके पात्र में आठ दुर्गुण हैं। (१) मस्ती, (२) पागलपन, (३) कलह (४) धृष्टता (५) बुद्धि का नाश (६) सच्चाई और योग्यता से घृणा (७) खुशी का नाश और (८) नरक का मार्ग ।
उपर्युक्त दुर्गुणों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि मद्यपान कितना हानिप्रद है। किसी मनोवैज्ञानिक ने लिखा है कि मदिरापान से असंतुष्ट व्यक्ति सुख प्राप्त करने का प्रयास करता है, निरुत्साही व्यक्ति साहस, ढुलमुल मनोवृत्तिवाला आत्म विश्वास और इसी प्रकार उदास व्यक्ति सुख की खोज करता है, किन्तु सबको इसके विपरीत विनाश मिलता है।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मद्यपान किसी भी स्थिति में हितकर नहीं है। इसका सेवन विनाश के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे सकता है, इसलिए कभी भी किसी भी स्थिति में इसका उपयोग नहीं करना चाहिये । कारण यह भी है कि आचार्य हेमचंद्र ने भी लिखा है।
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आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म
विवेकः संयमो ज्ञानं, सत्यं शौचं दया क्षमा । मद्यात् प्रलीयते सर्वं तृण्यां वह्निकणादिव ॥ योग शास्त्र ३ / १६
तात्पर्य यह है कि आग की नन्हीं सी चिनगारी विशालकाय घास के ढेर को नष्ट कर देती है। वैसे ही मदिरापान से विवेक, संयम, ज्ञान, सत्य, शौच, क्षमा आदि सभी सद्गुण नष्ट हो जाते है । (४) वेश्यागमन - चिंतनकारों ने वेश्यागमन को कुपथागामी व्यसन की संज्ञा दी है। यह एक ऐसा चमकीला, लुभावना और आकर्षक व्यसन है, जो जीवन को न केवल निंदनीय बनाता है,
वरन् बरबाद भी कर देता है। वेश्या अपने शिकार को फँसाने के लिए कपट व्यवहार करती है। अपनी निर्लज्ज भाव भंगिमा से उसे अपने जाल में फँसाती है, वह इतना अपनत्व प्रदर्शित करती है कि वेश्यागामी यह समझ लेता है कि वह उसके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित है। परिणामस्वरूप वेश्यागामी अपना सर्वस्व अर्थात् यौवन बल स्वास्थ्य धन आदि सब कुछ उस पर लुटा देता है और उसकी आँख तो जब खुलती है तब वेश्यागामी की जेब खाली हो जाती है और वेश्या उसे दुत्कार कर अपने कोठे से निकाल देती है, एक वेश्या वेश्यागामी को दर दर का भिखारी बना देती है। शारीरिक दृष्टि से भी वह इतना क्षीण हो चुका होता है कि कुछ कर सकने का सामर्थ्य उसमें शेष नहीं रहता है। भर्तृहरि ने वेश्या के संबंध में लिखा है
वेश्याऽसौ मदनज्वाला रूपेन्धनसमेक्षिताओ। कामिभिर्यत्र हूयन्ते यौवानाचि धनानि च ॥
इसका तात्पर्य यह है कि वेश्या कामाग्नि की ज्वाला है, जो सदा रूप-ईंधन से सुसज्जित रहती है। इस रूप ईंधन से सजी हुई वेश्या कामाग्नि ज्वाला में सभी के यौवन धन आदि भस्म कर देती है।
वेश्या आर्थिक और शारीरिक शोषण करने वाली जीती जागती प्रतिमा है वह समाज का कोढ़ है, मानवता का अभिशाप है, समाज के माथे पर कलंक का काला टीका है । समस्त नारी जाति की लांछन है। शास्त्रों में नारी का गौरव गरिमा का चित्रण करते हुए जिन महान रूपों में चित्रित किया गया है, वैश्या नारी होते हुए भी नारी के उन रूपों के विपरीत रूप प्रस्तुत करने वाली है। सद्गुणों के स्थान पर अवगुणों की खान है । लज्जा को
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