Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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मरुधर और मालवे के पाँच तीर्थ
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सवीं शताब्दी भारतीय इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। इसमें अनेक धर्मप्रचारक और राष्ट्रीय नेता पैदा हुये हैं। धर्मोद्धारकों में परम पूज्य प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का विशिष्ट और गौरवशाली स्थान है। आपने अपनी सर्वतोमुखी शास्त्र सम्मत्त विविध प्रवृत्तियों से जैन समाज का बड़ा ही गौरव बढ़ाया है। आपने जहाँ क्रियोद्धार कर श्रमण-संघ को वास्तविक प्रकार से चारित्र - पालन का मार्ग पुनः दिखलाया, वहाँ साहित्य - निर्माण कार्य भी महत्त्वपूर्ण प्रकारों से सम्पन्न किया और प्राचीन तीर्थों का उद्धार कार्य भी । आपने जिन प्राचीन तीर्थों और चैत्यों की सेवा की हैं, उनका यहाँ इस लघु लेख में परिचय देना ही हमारा ध्येय है।
१. श्रीकोरटाजीतीर्थ :
कोरंटनगर, कनकापुर, कोरंटपुर, कणयापुर और कोरंटी आदि नामों से इस तीर्थ का प्राचीन जैन साहित्य में उल्लेख मिलता है। उपकेशगच्छ-पट्टावली के अनुसार श्री महावीर देव के महापरिनिर्वाण के पश्चात् ७० वें वर्ष में श्री पार्श्वनाथसंतानीय श्री स्वयंप्रभसूरीश पट्टालंकार उपकेशवंश-संस्थापक श्रीरत्नप्रभसूरिजीने ओसिया और यहाँ एक ही लग्न में श्रीमहावीर देव की प्रतिमा स्थापित की थी। इस नगर से श्रीरत्नप्रभसूरि के शासनकाल में ही श्रीकनकप्रभसूरि से उपकेशगच्छ में से कोरंटगच्छ की उत्पत्ति हुई थी। श्रीकनप्रभसूरि रत्नप्रभसूरि के गुरुभाई थे। कोरंटगच्छ में अनेक महाप्रभाविक जैनाचार्य हुये हैं। वि.सं. १५२५ के लगभग कोरंट · तपा नामक एक शाखा भी निकली थी। कई शताब्दियों तक यह नगर जनधन और सब प्रकार से उन्नत और समृद्ध रहा है। वर्तमान में इसके खण्डहर देख कर भी ऐसा विश्वास किया जा सकता है और उल्लेख तो मिलते ही हैं।
यह प्राचीन समृद्ध नगर ५०० घरों के एक लघु ग्राम के रूप में आज एरणपुरा स्टेशन से १२ मील दूर पश्चिम की ओर
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विद्यमान है। इसका वर्तमान नाम कोरटा है। अभी यहाँ जैनों के ५० घर और उनमें लगभग २५० मनुष्य हैं तथा चार जिनेन्द्र मन्दिर हैं। जिन की व्यवस्था स्वर्गीय गुरुदेव प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से संस्थापित श्री जैन पीढी करती आ रही है।
व्याख्यान - वाचस्पति श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरि शिष्य
मुनि देवेन्द्रविजय 'साहित्यप्रेमी'...
(१) श्रीमहावीर - मन्दिर
कोरटा के दक्षिण में यह मन्दिर है । यह विशेषतः प्राचीन सादी शिल्पकला के लिये नमूनारूप है। श्री श्री रत्नप्रभसूरीश्वजीने वीरात् सं. ७० में इसकी प्रतिष्ठा की थी। विक्रम संवत् १७२८ में श्रावण सुदी १ के दिन श्री विजयप्रभसूरि के आज्ञावर्ती श्री जयविजय गणीने प्राचीन प्रतिमा के स्थान पर नवीन दूसरी प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। तत्सम्बन्धी एक लेख मन्दिर के मण्डप के एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इस श्रीजयविजयगणीप्रतिष्ठित प्रतिमा उत्तमांर्ग विकल हो जाने पर आचार्यवर्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने अपने उपदेश से मन्दिर का पुनरुद्धार करवाकर नूतन श्री वीरप्रतिमा प्रतिष्ठित की और श्रीजयविजयगणी द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा लेपादि से सुधरवा कर मन्दिर की नव चौकी में विराजमान करवा दी।
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(२) श्री आदिनाथ- मन्दिर
सन्निकटस्थ धोलागिरि की ढालू जमीन पर यह मन्दिर है। इसको विक्रम की १३वीं शताब्दी में महामात्य नाहड़ के किसी कुटुम्बीने अपने आत्मकल्याण के लिये निर्मित किया ज्ञात होता है। इसमें (आयतन) निर्माता की प्रतिष्ठित करवाई हुई प्रतिमा खण्डित हो जाने पर उसे हटा कर नवीन प्रतिमा वि.सं. १९०३ मेंदेवसूरिगच्छीय श्रीशान्तिसूरिजीने प्रतिष्ठित की और वही प्रतिमा अभी भी विराजित है। मूलनायकजी की प्रतिमा के दोनों ओर विराजित प्रतिमाएँ श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज द्वारा प्रतिष्ठित नूतन बिम्ब हैं।
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