Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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जैन-दर्शन में पर्यावरण-संरक्षण
कन्हैयालाल लोढ़ा....)
का उपाय जैन
प्रस्तुत लेख में
किया जा रहा
भारतीय संस्कृति में पर्यावरण शब्द का प्रयोग प्राकृतिक आत्मिक प्रदूषण को माना गया है, शेष सभी प्रदूषण इसी प्रदूषण पर्यावरण तक ही सीमित न होकर प्राणि-जगत् तथा मानव- के कटु फल, फूल, पत्ते व काँटे हैं। अत: जैन-धर्म इसी मूल जीवन से संबंधित आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक, पारिवारिक, प्रदूषण को दूर करने पर जोर देता है। इस प्रदूषण के मिटने पर सामाजिक, आर्थिक आदि सभी क्षेत्रों के लिए हुआ है। इन ही अन्य प्रदूषण मिटना संभव मानता है, जबकि अन्य संस्थाएँ, समस्त क्षेत्रों में पर्यावरण-प्रदूषण का मूल कारण आत्मिक सरकारें, राजनेता प्राकृतिक प्रदूषण को मिटाने पर जोर देते हैं। विकार है। आत्मिक विकार का क्रियात्मक रूप विषय-भोग है। परंतु उनके इस प्रयत्न से प्रदूषण मिट नहीं पा रहा है। एक रूप भोगवादी संस्कृति ने ही समस्त पर्यावरण-प्रदूषणों को जन्म में मिटने लगता है तो दूसरे रूप में फूट पड़ता है, केवल रूपान्तर दिया है। उन प्रदूषणों से मुक्ति पाने का उपाय जैन-दर्शन में मात्र होता है, जबकि जैन-वाङ्मय में प्रतिपादित सूत्रों के पालन गृहस्थ धर्म है। प्रस्तुत लेख में इसी पर विस्तार से विवेचन से सभी प्रकार के प्रदूषण समूल रूप से नष्ट होते हैं। इसी विषय
का अति संक्षिप्त रूप में ही यहाँ विवेचन किया जा रहा है। पर्यावरण शब्द 'परि' उपसर्गपूर्वक 'आवरण' से बना है, ऊपर कह आए हैं कि समस्त प्रदूषणों का मूल कारण जिसका अर्थ है - जो चारों ओर से आवृत्त किए हो, चारों ओर आत्मिक प्रदूषण अर्थात् आत्मिक विकार है। आत्मिक विकार छाया हुआ हो चारों का शाब्दिक अर्थ वायुमंडल होता है, परंतु हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि प्रमाणित है, इन्हें ही पाप भी वर्तमान में वातावरण शब्द व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है, जैसे कहा जाता है। इन सब पापों की जड़ है विषय-कषाय से मिलने कहा जाता है कि व्यक्ति जैसे वातावरण में रहता है उसके वैसे वाले सुखों के भोग की आसक्ति। भोगों की पूर्ति के लिए भोग ही भले-बुरे संस्कार पड़ते हैं। इस रूप में पर्यावरण शब्द भारत -सामग्री व सुविधाएँ चाहिए। भोगजन्य, सुख सामग्री व सुविधा के प्राचीन धर्मों में वातावरण से अर्थात मानव-जीवन से संबंधित -प्राप्ति के लिए धन सम्पत्ति चाहिए। धन प्राप्त करने के लोभ से सभी क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है। पर्यावरण दो प्रकार का होता है - ही मानव हिंसा, झूठ, चोरी, संग्रह, परिग्रह, शोषण आदि दूषित परिशुद्ध एवं अशुद्ध। जो पर्यावरण जीवन के लिए हितकर होता कार्य करता है। स्वास्थ्य के लिए हानिकारक वस्तुओं का है वह परिशुद्ध पर्यावरण है और जो पर्यावरण जीवन के लिए उत्पादन करता है, असली वस्तुओं में हानिप्रद नकली वस्तुएँ अहितकर होता है, वह अशुद्ध पर्यावरण है। इसी अशुद्ध पर्यावरण मिलाता है और इसी प्रकार के अनेक प्रदूषणों को जन्म देता है। को प्रदूषण कहते हैं।
वर्तमान में जितने भी प्रदूषण दिखाई देते हैं, इन सबके मूल में पाश्चात्य देशों में प्रदूषण शब्द प्राकृतिक प्रदूषण का सूचक
भोगलिप्सा व भोग-वृत्ति ही मुख्य है। है। परंतु भारतीय धर्मों में विशेषत: जैनधर्म में पर्यावरण-प्रदूषण जब तक जीवन में भोग वृत्ति की प्रधानता रहेगी तब तक केवल प्रकृति तक ही सीमित नहीं है। प्रत्येक आत्मिक, मानसिक, भोगसामग्री प्राप्त करने के लिए लोभवृत्ति भी रहेगी। कहा भी है सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, आर्थिक आदि जीवन से कि लोभ पाप का बाप है अर्थात् जहाँ लोभ होता है वहाँ पाप की संबंधित समस्त क्षेत्र इसकी परिधि में आते हैं। जीवन से संबंधित उत्पत्ति होती ही है। अतः प्रदूषण के अभिशाप से बचना है तो ये सभी क्षेत्र परस्पर जुड़े हुए हैं। इनमें से किसी भी एक क्षेत्र में . पापों से बचना ही होगा, पापों को त्यागना ही होगा। पापों का उत्पन्न हुए प्रदूषण का प्रभाव अन्य सभी क्षेत्रों पर पड़ता है। जैन त्याग ही जैनधर्म की समस्त साधनाओं का आधार व सार है। -दर्शन में प्रदूषण, दोष, पाप, विकार, विभाव, एकार्थक शब्द पापों से मुक्ति को ही जैनधर्म में मुक्ति कहा गया है। अतः हैं। जैन-दर्शन में इन सभी क्षेत्रों के प्रदूषणों का मूल कारण जैनधर्म की समस्त साधनाएँ, प्रदूषण को दूर करने वाली है।
నరసారసాగరసాగరసారసాగరసాగర
గరగరగపోరు సాగురువారం గురువారసాగరం
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