Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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• प्रतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ ग्राहिता के पूर्वानुभाविक तत्व है।" मिशाल के तौर पर यदि हम एक फूल की कल्पना करते हैं तो इसके साथ ही देश का विचार भी आ जाता है, क्योंकि गुलाब कुछ न कुछ दिक् घेरता है और इसी प्रकार गुलाब की उपस्थिति किसी न किसी काल में होती है | अतः काण्ट के अनुसार देश और काल की कल्पना तो वस्तुओं के अभाव में संभव है, परंतु किसी भी वस्तु की कल्पना बिना देश और काल के संभव नहीं है। अतः देश और काल संवेदनग्राहिता के पूर्वानुभविक तत्त्व हैं । काण्ट के अनुसार देश और काल पूर्वानुभाविक हैं, यह इस बात से भी सिद्ध होता है कि देश और काल अपरिमित ( Infinite ) हैं, जिन्हें कोई भी व्यक्ति अपनी अनुभूतियों में नहीं ला सकता । "
भारतीय एवं पाश्चात्य चिंतकों के विचारों को देखने के पश्चात आकाश के संबंध में तीन विचारधाराएँ स्पष्ट होती हैं-(i) आकाश प्राग्-अनुभव अंत: दर्शन की उपज है।
(ii) आकाश जड़ पदार्थों से जुड़ा है या उनका गुणरूप या क्रमरूप है।
(iii) आकाश जड़ और चेतन से सर्वथा भिन्न एक स्वतंत्र वास्तविकता है।
प्रथम विचारधारा के समर्थकों में काण्ट का नाम प्रमुख है । इनका मानना है कि आकाश स्वयं में कोई वास्तविक तत्त्व नहीं है, बल्कि हमारे मस्तिष्क की उपज है। चूँकि हम व्यवहार में वास्तविक पदार्थों के विस्तार को देखते हैं और यह अनुभव करते हैं कि इसका कोई न कोई आधार होना चाहिए। उस आधार रूप में हम आकाश की कल्पना कर लेते हैं। अर्थात् आकाश आत्मनिष्ठ है, ज्ञाता में निहित है। वास्तविक पदार्थ या पदार्थ का गुण नहीं | प्रश्न होता है कि वास्तविक पदार्थों का आधार यदि वास्तविक नहीं होता है तो काल्पनिक आश्रय के द्वारा उनका टिकाव कैसे हो सकता है। अतः आकाश को वास्तविक मानना ही पड़ता है। जहाँ तक आकाश के पूर्वानुभाविक अंतः दर्शन का प्रश्न है, जो वस्तुओं के प्रत्यक्ष करने के अपरिहार्य आधार हैं। हमारी सभी संवेदन-सामग्रियाँ देशकाल द्वारा व्यवस्थित होकर ही हमारी चेतना में प्रवेश करती हैं । काण्ट के इस मत की आलोचना करते हुए वर्टेण्डरसेल ने कहा है- यदि यह मान लिया जाए कि सभी संवेदन - सामग्रियाँ देश (Space) और काल
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आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म
(Time) द्वारा व्यवस्थित होकर ही हमारी चेतना में प्रवेश करती हैं तो प्रश्न होता है कि संवदेन - सामग्रियाँ देश और काल को सदा ही उसी रूप में व्यवस्थित क्यों करती है, जैसा कि हम उन्हें देखते हैं, वे क्यों नहीं उन्हें किसी भिन्न अथवा दूसरे रूप में व्यवस्थित करती हैं। मिशाल के तौर पर हम हमेशा क्यों यह देखते हैं कि मनुष्य की आंखें उसके मुख के ऊपर हैं, उससे भिन्न अथवा दूसरे रूप में व्यवस्थित क्यों नहीं ?" यद्यपि काण्ट ने इसका समाधान दिया है, जिसका विस्तृत विवेचन हम यहाँ नहीं कर सकते । किन्तु आकाश की वास्तविक सत्ता को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा ।
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लाइब्नित्ज के अनुसार भी आकाश की स्वतंत्र सत्ता नहीं होती । वस्तुओं की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं और स्थितियों के आधार पर हम देश (Space) की कल्पना कर लेते हैं। इस प्रकार लाइनिज आकाश को जड़ पदार्थों से जोड़ देते हैं। प्रश्न होता है कि यदि भौतिक पदार्थों का अभाव है तो आकाश के अस्तित्व का भी होगा? अत: लाइब्नित्ज की यह मान्यता स्वीकारने योग्य नहीं है। क्योंकि आकाश अनन्त है और भौतिक जगत् शांत । आकाश अमूर्त है जबकि भौतिक पदार्थ मूर्त। साथ ही आकाश को भौतिक पदार्थ का गुण भी मानना उपयुक्त नहीं जान पड़ता, जैसा कि डेकार्त ने माना है। स्थान रोकना या स्थान पाना भौतिक पदार्थ का गुण है किन्तु जिसमें स्थान पाया जाता है, वह तो उससे भिन्न ही होता है। एक ही स्थान में अनेक पदार्थों का आश्रित होना और एक ही पदार्थ का कालांतर में अनेक स्थानों में आश्रित होना आश्रय देने वाले तत्त्व को आश्रित तत्त्व से भिन्न कर देता है। दूसरी बात कि आकाश अमूर्त है तथा भौतिक पदार्थ मूर्त | फिर अमूर्त आकाश मूर्त पदार्थ का गुण कैसे बन सकता है?
जैन दर्शन के अनुसार आकाश सर्वव्यापी, एक अमूर्त और अनन्त प्रदेश वाला है। 'आकाशस्यावगाहः ' आकाश का लक्षण है ।" वह जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल को स्थान देता है। अत: वह अवगाहन गुणवाला है। स्वरूप की दृष्टि से अवर्ण, अगंध, अस्पर्श, अरूपी, अजीव शाश्वत अवस्थित व लोकालोकरूप द्रव्य है । ११ स्थानाङ्गसूत्र के अनुसार वह द्रव्य की अपेक्षा से एक द्रव्य है। क्षेत्र की अपेक्षा से लोकालोक प्रमाण अर्थात् सर्वव्यापक है । काल की अपेक्षा से वह ध्रुव,
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