Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्दसूरिस्मारक ग्रन्य - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म-- ही संभव होगा। आज शस्त्र और सेना के सहारे एक देश दूसरे के होगा। इक्कीसवीं सदी में आसन और ध्यान इस आधार पर मन में भय और असुरक्षा की भावना उत्पन्न कर रहा है। आज समर्थित नहीं होंगे कि उनसे पारलौकिक जीवन में कोई उपलब्धि विश्व के सम्पूर्ण देशों के उत्पादन का लगभग ३०% भाग सेना होगी, अपितु अब हमें उनकी वैयक्तिक तनाव-मुक्ति एवं शारीरिक
और शस्त्रों के निर्माण में खर्च हो रहा है यदि यह ३०% राशि स्वास्थ्य के लिए प्रासंगिकता सिद्ध करनी होगी। जहाँ तक जैन मानवता के कल्याण में लगती तो कितना अच्छा होता। इक्कीसवीं -आचार का प्रश्न है यह आवश्यक होगा कि हम उसकी शती की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है, मानव-जाति में अभय वैज्ञानिकता को सिद्ध करें। इक्कीसवीं सदी में मांसाहार का का विकास करना । जैन चिन्तकों ने स्पष्ट रूप से यह उद्घोष त्याग इस आधार पर तो नहीं कराया जा सकेगा कि उसके किया था कि “दाणाणं सेट्ठ अभयपयाणं" अर्थात् दानों में परिणामस्वरूप नरक की प्राप्ति होगी अथवा नहीं करने र अभयदान से बढ़कर कोई दान नहीं है। दूसरों के हित और मंगल स्वर्ग की उपलब्धि होगी। किन्तु यदि हम वैज्ञानिक दृष्टि से यह के प्रयत्नों में यदि कोई प्रयत्न सबसे बड़ा हो सकता है तो वह है सिद्ध कर दें कि मांसाहार मनुष्य का स्वाभाविक आहार नहीं है प्राणिजगत् में अभय का यह विकास और यह अभय का विकास । अथवा उसके कारण मानव-स्वास्थ्य पर दूषित प्रभाव होता है शस्त्रीकरण से नहीं निःशस्त्रीकरण से ही सम्भव होगा। अथवा उसके कारण पर्यावरण का सन्तुलन भंग होगा और
परिणाम-स्वरूप मानव जाति को अपने अस्तित्व का खतरा धर्म का आध्यात्मीकरण
उठाना होगा अथवा उसके परिणाम-स्वरूप मानव की करुणा विगत शताब्दियों में धर्म का सम्बन्ध मुख्य रूप से विधि- की भावना समाप्त होगी, मानव स्वभाव में क्रूरता उत्पन्न होगी विधानों और कर्मकाण्डों तक सीमित होकर रह गया है, इक्कीसवीं और फलतः हिंसा आदि संघर्ष होंगे अथवा यह कि मांसाहार शताब्दी में हमें धर्म के स्वरूप में परिवर्तन करना होगा। अब सहज न्याय (Natural Justice) के प्रतिकूल है। धर्म को 'रिच्युलिस्टिक' के स्थान पर 'स्पीच्युलिस्टिक' बनाना
- इस प्रकार जैन आचार के प्रत्येक विधि-विधान को तार्किक होगा। अब धर्म का कर्मकाण्डात्मक स्वरूप समाप्त करके उसे
युक्तियों के साथ और वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट करना होगा आध्यात्मिक बनाना होगा। जैनधर्म में धर्म का प्रयोजन भगवान
और यदि हम ऐसा कर सके तो निश्चय ही इक्कीसवीं सदी के । को प्रसन्न करना न होकर आध्यात्मिक शान्ति की प्राप्ति है। अब
अनुरूप हमारी यह आचार-संहिता सुरक्षित रह सकेगी। यह वही धर्म जनता को अधिक आकर्षित करेगा जो उसे आध्यात्मिक
सत्य है कि आने वाली इक्कीसवीं सदी जैनधर्म के अहिंसा शान्ति प्रदान करेगा। अब वह धर्म, जो नरक के भय और स्वर्ग
आदि सिद्धान्तों और जीवनमूल्यों को प्रतिष्ठित करने में सहायक के प्रलोभन पर खड़ा हुआ था, कोई अर्थ नहीं रखेगा, उसका
ही होगी। क्योंकि जैन-दर्शन के विभिन्न सिद्धान्त वैज्ञानिक आधारों। स्थान वह धर्म लेगा जो तात्कालिक परिणाम प्रस्तुत करेगा।
पर स्थित हैं तथा सहज न्याय के समर्थक है। इक्कीसवीं सदी में इक्कीसवीं सदी में धर्म का कर्मकाण्डात्मक प्रश्र गौण तो जैन धर्म का यदि कोई पक्ष खण्डित होगा तो केवल वे थोथे अवश्य होगा, किन्तु मानव-प्रकृति का जो भावनात्मक पक्ष कर्मकाण्ड और प्रदर्शन ही समाप्त होंगे, जो मूलतः अन्य परम्पराओं है,उसकी पूर्ति के लिए भक्तिभाव और पूजा-अर्चना के तत्त्व के अन्धानुकरण के परिणामस्वरूप जैनधर्म में प्रविष्ट हो गए हैं। बने रहेंगे। यद्यपि इक्कीसवीं सदी में धर्म के क्षेत्र में तार्किकता
वस्तुतः इक्कीसवीं सदी में यदि कोई धर्म और जीवन प्रमुख होगी, किन्तु श्रद्धा का तत्त्व भी बना रहेगा। आवश्यकता
___ मूल्य खड़े रह सकते हैं तो उन्हें वैज्ञानिक और तार्किक यह होगी की धार्मिक कर्मकाण्डों की उद्देश्यात्मकता को स्पष्ट
आधारों पर युक्तिसंगत होना चाहिए। इस प्रकार इक्कीसवीं कर उन्हें ऐहिक जीवन की सुख-शांति के साथ जोड़ना होगा।
सदी में जैन -धर्म में श्रद्धा पक्ष गौण होगा और ज्ञान पक्ष अब धार्मिक जीवन से सम्बन्धित वे ही कर्मकाण्ड मान्य प्रमुख होगा। जहाँ तक जैन आचार का प्रश्न है, उसमें जो भाव हो सकेंगे, जिनकी प्रासंगिकता को तार्किक और वैज्ञानिक आधार पक्ष की प्रधानता है वह अधिक मुखर होगी और पर सिद्ध किया जा सकेगा। जो भी कर्मकाण्ड तार्किक और कर्मकाण्डात्मक पक्ष गौण होगा। वैज्ञानिक आधारों पर सिद्ध नहीं होंगे, उनका परित्याग करना
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