Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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जैन धर्म की परम्परा, इतिहास के झरोखे से
द्यपि जनसंख्या की दृष्टि से आज विश्व में प्रति एक हजार य व्यक्तियों में मात्र छह व्यक्ति जैन हैं, फिर भी विश्व के धर्मों के इतिहास में जैनधर्म का भी अपना एक विशिष्ट स्थान है, क्योंकि वैचारिक उदारता, दार्शनिक गंभीरता, विपुल साहित्य और उत्कृष्ट शिल्प की दृष्टि से विश्व के धर्मों में इसका अवदान महत्त्वपूर्ण है। आइए ! इस महान धर्म-परम्परा का इतिहास के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करें।
श्रमणपरंपरा :
विश्व के धर्मो की मुख्यतः सेमेटिक धर्म और आर्य-धर्म, ऐसी दो शाखाएँ हैं। सेमेटिक धर्मों में यहूदी, ईसाई और मुसलमान आते हैं, जबकि आर्य-धर्मों में पारसी, हिन्दू (वैदिक) बौद्ध और जैन धर्मों की गणना की जाती है। इनके अतिरिक्त सुदूर पूर्व के देश जापान और चीन में विकसित कुछ कन्फूशियस एवं शिन्तो के नाम से जाने जाते हैं।
आर्य-धर्मों में जहाँ हिन्दू धर्म के वैदिक स्वरूप को प्रवृत्तिमार्गी माना जाता है। वहाँ जैनधर्म और बौद्धधर्म को संन्यासमार्गी या निवृत्तिपरक कहा जाता है। जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म श्रमण परम्परा के धर्म है। श्रमण- परंपरा की विशेषता यह है कि वह सांसारिक एवं ऐहिक जीवन की दुःखमयता को उजागरकर संन्यास एवं वैराग के माध्यम से निर्वाण की प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य निर्धारित करती है। इस निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा ने अपनी तप एवं योग की आध्यात्मिक साधना एवं शीलों या व्रतों के रूप में नैतिक मूल्यों की संस्थापना की दृष्टि से भारतीय धर्मों के इतिहास में अपना विशिष्ट अवदान प्रदान किया है। इस श्रमण-परंपरा में न केवल जैन और बौद्ध धारायें ही सम्मिलित हैं, अपितु औपनिषदिक और सांख्य-योग की धारायें भी सम्मिलित हैं, जो आज वृहद् हिन्दू धर्म का ही एक अंग बन चुकी हैं। इनके अतिरिक्त आजीवक आदि अन्य कुछ धारायें भी थीं, जो आज विलुप्त हो चुकी है।
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पारस्परिक सौहार्द की प्राचीन स्थिति :
प्राकृत-साहित्य में ऋषिभाषित (इसिभासियाई) और पाली साहित्य में थेरगाथा ऐसे ग्रन्थ हैं। जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि अति प्राचीन काल में आचार और विचारगत विभिन्नताओं के होते हुए भी इन ऋषियों में पारस्परिक सौहार्द था ।
डॉ. सागरमल जैन...
ऋषिभाषित, जो कि प्राकृत-जैन आगमों और बौद्ध पालीपिटकों में अपेक्षाकृत रूप से प्राचीन है और जो किसी समय जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता था, अध्यात्मप्रधान श्रमणधारा के इस पारस्परिक सौहार्द और एकरूपता को सूचित करता है । यह ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पश्चात् तथा शेष सभी प्राकृत और पाली - साहित्य के पूर्व ई. पू. लगभग चतुर्थ शताब्दी में निर्मित हुआ है। इस ग्रन्थ में निर्ग्रन्थ, बौद्ध, औपनिषदिक एवं आजीवक आदि अन्य श्रमण परम्पराओं के ४५ 'ऋषियों के उपदेश संकलित हैं। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा के ग्रन्थ थेरगाथा में भी श्रमणधारा के विविध ऋषियों के उपदेश एवं आध्यात्मिक अनुभूतियाँ संकलित हैं । ऐतिहासिक एवं अनाग्रही दृष्टि से अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है, न तो ऋषिभासित (इसि भासियाई) के सभी ऋषि जैन-परम्परा के हैं और न थेरगाथा के सभी थेर (स्थविर) बौद्ध परम्परा के हैं । जहाँ ऋषिभासित में सारिपुत्र, वात्सीपुत्र ( वज्जीपुत्त) और महाकाश्यप बौद्ध परम्परा के हैं, वहीं उद्दालक, याज्ञवल्क्य, अरुण, असितदेवल, नारद, द्वैपायन, अंगारिस भारद्वाज आदि औपनिषदिक धारा से संबंधित हैं, तो संजय (संजय वेलट्ठिपुत्त) मंखली गोशाल, रामपु आदि अन्य स्वतंत्र श्रमण-परंपराओं से संबंधित है। इसी प्रकार थेरगाथा में वर्द्धमान आदि जैन धारा के, व नारद आदि औपनिषदिक धारा के ऋषियों की स्वानुभूति संकलित है। सामान्यतया यह माना जाता है कि श्रमणधारा का जन्म वैदिकधारा की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ, किन्तु इसमें मात्र आंशिक सत्यता है । यह सही है कि वैदिक धारा प्रवृत्तिमार्गी थी और श्रमण धारा निवृत्तिमार्गी थी और इनके बीच वासना और विवेक अथवा भोग और त्याग के जीवनमूल्यों का संघर्ष था । किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से तो
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