Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासउसके पुत्र ओमकेशरी तृतीय ने सोमदेवसूरि को एक जिनालय विक्रमादित्य के काल में भी जैन बस्तियां बनती रही हैं यहाँ। भेंट किया था। यहाँ अनेक जैन मूर्तियाँ मिली है, इस काल की। वेलन्तिचोल-काल भी जैन संप्रदाय के लिए अनुकूल हैदराबाद से लगभग १५० कि.मी. दूर कुलचारम ग्राम में ऋषभदेव साग मितीय और गला
दव रहा है। गोंक द्वितीय जैन राजा था। उसने गुन्तूर जिले में मुनुगोडु
रेता की एक प्राचीन भव्य प्रतिमा मिली है।
गाँव में पृथ्वीतिलक नामक जैन वसति बनवाई थी। गोंक प्रथम कल्याणी चालुक्य में तैलप द्वितीय ने जैनधर्म को अच्छा ने भी यहाँ एक जैनमंदिर बनवाया था। जिसमें अनेक जैनाचार्य प्रश्रय दिया। पोटलचेरूव (पाटनचेरू) में हैदराबाद से लगभग रहते थे। तेनालि में भी एक जैन वसति थी। गोदावरी और कृष्णा १६ कि.मी. दूर है, जहाँ अनेक जैनमंदिर और मूर्तियाँ आज भी नदियों के बीच कोलानियों का भी राज्य रहा है। उन्होंने भी जैन सुरक्षित हैं। वर्धमानपुर (वड्डमानु) शायद यही रहा होगा। यहाँ मंदिरों को दान दिया। अछन्त आदि अनेक वसतियाँ है, यहां भी मूर्तियाँ मिली हैं। बड्डमानु के आगे पेदतुंबलम में एक बड़ी पेनुगोण्डा आदि गाँवों में। जैन बसदि के चिह्न मिलते हैं, जो वीरशैवों द्वारा विनष्ट कर दी
हैहयकाल में गोदावरीडेल्टा में अनेक जैनमंदिरों का निर्माण गई। यहीं एक पार्श्वनाथ मूर्ति भी मिली है। गडबल के पास पुडुल ।
हुआ। ततिपाक में एक बड़ा जिनालय है। नेडनुरू में भी में भी जैन-पुरातत्त्व पाया जाता है।
जैनपुरातत्त्व मिलता है। लोल्ला में एक अंबिका की मूर्ति मिली हनुमानकोण्डा के समान अडोनी में एक जैन-गुफा मिली है। हैहय वंश वस्तुत: जैनधर्मावलंबी था। इसलिए इस काल में है। जिसमें पार्श्वनाथ आदि तीर्थंकरों की अनेक मूर्तियाँ मिलती जैन वसदियों का निर्माण खूब हुआ। पीठपुर में उनकी बनवाई हैं। पुदुर से भी बड़ा जैन केन्द्र नायकल्लु रहा है, जहाँ एक बड़ी दो जैन मूर्तियां मिली हैं। गौतमी के किनारे बसे सिला, काजुलुरू जैन वसदि के चिह्न बिखरे पड़े हैं। पाँच फीट ऊँची एक सुंदर आदि अनेक स्थानों पर जैन-मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। ककिनद के पार्श्वनाथ मूर्ति भी यहाँ मिली है। रायदुर्गम पहाड़ी पर भी चालुक्य पास नेमम् में अनेक जैनमंदिरों के अवशेष मिले हैं।भोगपुर के कालीन जैनमंदिर है। कम्बदुर (अनन्तपुर), योगरकुन्त, अमरपुरम्, पास मन्नमनयक द्वारा निर्मित (११८७ ई.) एक राज्य जिनालय कोट्टशिवरम आदि स्थानों पर भी बहुत जैन-पुरातत्व प्राप्त हैं। मिलता है। आंध्र के दक्षिण में चित्तोर जिले में निद्र और निदथुर यहाँ तैलप द्वितीय द्वारा लेख भी ताडिपर्ति में दो जिनालय थे। जैनमंदिर खड़े हैं। चन्द्रप्रभ और पार्श्वना के जिन्हें १२०८ ई. में उदयादित्य ने
११६२ ई. में विज्जल कलचरी राजा ने छिपगिरि में एक बनवाया था, उसने कुछ गाँव भी इन मंदिरों को दिए थे। पर अनि आज उनका कोई चिह्न नहीं मिल रहा है। वारंगल किले में चार
विज्जल ने अपने एक मंत्री के दामाद वासववीर को जैनमंदिर हैं। काकतीय राजाओं की राजधानी बनने के पहले ही
कोषाध्यक्ष बनाया। वासव पक्का शैव था। उसने विज्जल की यहाँ एक बड़ी जैन वसदि थी।
हत्या करा दी और वहाँ से भाग गया। बाद में उसने हजारों की तेलंगाना प्रदेश में और भी अन्य जैन वसदियां है। तेलंगाना
संख्या में जैनों को मारा और उनके मंदिरों को नष्ट किया अकेले शिलालेखों में ३५ शिलालेख हैं, जो जैन पूजादान की बात करते
ओट्टवछेरुवु में ५०० वसदियों को नष्ट किया। पालकुरुकि सोमनाथ हैं उज्जिलिकिले के बडिड जिनालय में। उसी पाषाण पर एक कवि के अनसार कोलनपाक के सारे जैन मंदिर वीर-शैवों ने अन्य लेख खुदा है जो इन्द्रसेन पंडित नाम से दान का उल्लेख
हथिया लिए और अन्य जैन-मंदिरों को धल में मिला दिया। करता है। यह दान (१०९७ ई.) जैनालय को चलाने के लिए दिया गया था। वीरशैवों ने इस जिनालय को बाद में अपने
आन्ध्र के इतिहास और संस्कृति के निर्माण में जैनों का अधिकार में कर लिया। अन्य शिलालेखों में नं. दो का शिलालेख
बहुत बड़ा योगदान रहा है। यद्यपि तेलगू में जैनसाहित्य अधिक राजा बेक्कल्लु का है, जिसने गुणसेन को ग्राम दान दिया। नं.
तो नहीं मिलता पर उनके द्वारा किए गए कल्याण-कार्य आज
भी देखे जा सकते हैं। सिवग्गण, आर्यावतम, ३२ का कल्याण चालुक्य का है, जिसने १११९ ई. में ब्रह्मेश्वर
पेनुकोण्डा, देव को पार्श्वनाथ जिनालय के खर्च के लिए ग्रामदान दिया। राजा
भोगपुरम्, हनुमानकोण्डा, वारंगल किला आदि स्थानों पर बनाए
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