Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन साधना एवं आचार
क्रमशः भौतिक तत्त्वों या शरीर, मातृकापदों, सर्वज्ञदेव तथा सिद्धात्मा का चिंतन किया जाता है; क्योंकि स्थूल ध्येयों के बाद क्रमश सूक्ष्म और सूक्ष्मतर ध्येय का ध्यान करने से मन में स्थिरता आती है और ध्याता एवं ध्येय में कोई अन्तर नहीं रह जाता।
जैन धर्म में ध्यान-साधना का विकासक्रम
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जैन धर्म में ध्यानसाधना की परम्परा प्राचीनकाल से ही उपलब्ध होती है। सर्वप्रथम हमें आचारांग में महावीर के ध्यान-साधना संबंधी अनेक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं। आचारांग के अनुसार महावीर अपने साधनात्मक जीवन में अधिकांश समय ध्यान-साधना में ही लीन रहते थेट आचारांग से यह भी ज्ञात होता है कि महावीर ने न केवल चित्तवृत्तियों के स्थिरीकरण का अभ्यास किया था, अपितु उन्होंने दृष्टि के स्थिरीकरण का भी अभ्यास किया था। इस साधना में वे अपलक होकर दीवार आदि किसी एक बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित करते थे। इस साधना में उनकी आँखें लाल हो जाती थीं और बाहर की ओर निकल आती थीं जिन्हें देखकर दूसरे लोग भयभीत भी होते थे। ८९ आचारांग के ये उल्लेख इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि महावीर ने ध्यान-साधना की बाह्य और आभ्यन्तर अनेक विधियों का प्रयोग किया था। वे अप्रमत्त (जाग्रत होकर समाधिपूर्वक ध्यान करते थे। ऐसे भी उल्लेख उपलब्ध होते हैं कि महावीर के शिष्य- प्रशिष्यों में भी यह ध्यान-साधना की प्रवृत्ति निरन्तर बनी रही। उत्तराध्ययन में मुनिजीवन की दिनचर्या का विवेचन करते हुए स्पष्ट रूप से निर्देश दिया गया है कि मुनि दिन और रात्रि के द्वितीय प्रहर में ध्यान साधना करे। ९० महावीरकालीन साधकों के ध्यान की कोष्ठोपगत विशेषता आगमों में उपलब्ध होती है। यह इस बात की सूचक है कि उस युग में ध्यान-साधना मुनि-जीवन का एक आवश्यक अंग थी। भद्रबाहु द्वारा नेपाल में जाकर महाप्राण ध्यान की साधना करने का उल्लेख भी मिलता है । ९१ इसी प्रकार दुर्बलिकापुष्यमित्र की ध्यान-साधना का उल्लेख आवश्यकचूर्णि में है। १२ वद्यपि आगमों में ध्यान संबंधी निर्देश तो है, किन्तु महावीर और उनके अनुयायियों की ध्यान प्रक्रिया का विस्तृत विवरण उनमें उपलब्ध नहीं है।
महावीर के युग में श्रमण परम्परा में ऐसे अनेक श्रमण थे जिनकी अपनी-अपनी ध्यान-साधना की विशिष्ट पद्धतियाँ थी। इनमें बुद्ध और महावीर के समकालीन किन्तु उनसे ज्येष्ठ रामपुत्त का हम प्रारम्भ में ही उल्लेख कर चुके हैं। आचारांगसूत्र में साधकों के सम्बन्ध में विपस्सी और पासग ९३ जैसे विशेषण मिलते हैं। इससे ऐसा लगता है कि भगवान् महावीर की निर्ग्रन्थ-परम्परा में भी ज्ञाता - द्रष्टाभाव में चेतना को स्थिर रखने के लिए विपश्यना जैसी कोई ध्यान साधना की पद्धति रही होगी। उसमें श्वासोच्छ्वास-प्रेक्षा, शरीर प्रेक्षा, कषाय या चित्त प्रेक्षा के संकेत तो हैं किन्तु विस्तृत विवरणों के अभाव में आज उस पद्धति की सम्पूर्ण प्रक्रिया की चर्चा नहीं की जा सकती, परन्तु आचारांग जैसे प्राचीन आगम में इन शब्दों की उपस्थिति इस तथ्य की सूचक अवश्य है कि उस युग में ध्यान साधना की जैन- परम्परा की अपनी
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कोई विशिष्ट पद्धति थी। यह भी हो सकता है कि साधकों की प्रकृति के अनुरूप ध्यान-साधना की एकाधिक पद्धतियाँ भी प्रचलित रही हों, किन्तु आगमों को अन्तिम वाचना तक वे विलुप्त होने लगी थीं। जिस रामपुत्त का निर्देश भगवान् बुद्ध के ध्यान के शिक्षक के रूप में मिलता है, उनका उल्लेख जैन परंपरा के प्राचीन आगमों में जैसे सूत्रकृतांग, अंतकृद्शा, औपपातिकदशा, ऋषिभाषित आदि में होना १४ इस बात का प्रमाण है कि निर्ग्रन्थ- परम्परा रामपुत्त की ध्यान-साधना की पद्धति से प्रभावित थी। बौद्ध परम्परा की विपश्यना और निर्ग्रथ- परम्परा की आचारांग की ध्यान साधना में जो कुछ निकटता परिलक्षित होती है, यह सूचित करती है कि सम्भवतः दोनों का यह सूचित करती है कि सम्भवतः दोनों का मूल खोत रामपुत्त की ध्यानपद्धति ही रही होगी इस संबंध में तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन किया जाना अपेक्षित है।
वह
षट् आवश्यकों में कायोत्सर्ग को भी एक आवश्यक माना गया है। कायोत्सर्ग ध्यान-साधनापूर्वक ही होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। प्रतिक्रमण में अनेक बार कायोत्सर्ग (ध्यान) किया जाता है। वर्तमानकाल में भी यह परम्परा अविच्छिन्न रूप से जीवित है। आज भी ध्यान की इस परम्परा में आचार संबंधी दोषों के चिन्तन के अतिरिक्त नमस्कार मंत्र, चतुर्विंशतिस्तव के माध्यम से पंचपरमेष्ठि अथवा तीर्थंकरों का ध्यान किया जाता है। हुआ मात्र यह है कि ध्यान की इस समग्र प्रकिया में, जो सजगता अपेक्षित थी, वह समाप्त हो गयी है और ये सब ध्यान संबंधी प्रक्रियाएँ रूढ़ि मात्र बनकर रह गई हैं। यद्यपि इन प्रक्रियाओं की उपस्थिति से यह ज्ञात होता है कि ध्यान की इन प्रक्रियाओं से चेतना से सतत् रूप से जाग्रत या ज्ञाता द्रष्टा भाव में स्थिर रखने का प्रयास किया जाता रहा है।
आगम युग तक जैन-धर्म में ध्यान का उद्देश्य मुख्य रूप से आत्मशुद्धि या चारित्रशुद्धि ही था अथवा यों कहें कि वह चित्त को समभाव में स्थिर रखने का प्रयास था।
मध्य युग में जब भारत में तंत्र और हठयोग संबंधी साधनाएँ प्रमुख बनीं तो उनके प्रभाव से जैन-ध्यान की प्रक्रिया में परिवर्तन आया। आगमिक काल में ध्यान-साधना में शरीर, इन्द्रिय, मन और चित्तवृत्तियों के प्रति सजग होकर चेतना को द्रष्टाभाव या साक्षीभाव में स्थिर किया जाता था, जिससे शरीर और मन के उद्वेग और आकुलताएँ शान्त हो जाती थीं। दूसरे शब्दों में वह चैतसिक समत्व अर्थात् सामायिक की साधना थी, जिसका कुछ रूप आज भी विपश्यना में उपलब्ध हैं। किन्तु जैसे-जैसे भारतीय समाज में तंत्र और हठयोग का प्रभाव बढ़ा वैसे-वैसे जैन साधनापद्धति में भी परिर्वतन आया। जैन ध्यानपद्धति में पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ आदि ध्यान की विधियाँ और पार्थिवी, आग्नेयी, वायवीय और वारुणीय जैसी धारणाएँ सम्मिलित हुई। बीजाक्षरों तथा मंत्रों का ध्यान करने की परम्परा विकसित हुई और षट्चक्रों के भेदन का प्रयास भी हुआ। यह स्पष्ट है कि यह सब कौलतन्त्र एवं हठयोग से जैनपरम्परा में आया।
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यदि हम जैन परम्परा में ध्यान की प्रक्रिया का इतिहास देखते
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