Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचार
यह बताया गया है कि पश्चिम दिशा में मुख करके दन्तधावन करें फिर शताब्दी से ही जैन-ग्रंथों में इसका समर्थन देखा जाता है। सम्भवतः ईसा पूर्वमुख हो स्नानकर श्वेत वस्त्र धारण करें और फिर पूर्वोत्तर मुख होकर की छठी-सातवीं शती तक जैन-धर्म में पूजा-प्रतिष्ठा सम्बन्धी अनेक जिनबिम्ब की पूजा करें। इस प्रकरण में अन्य दिशाओं और कोणों में कर्मकाण्डों का प्रवेश हो गया था। यही कारण है कि आठवीं शती में स्थित होकर पूजा करने से क्या हानियाँ होती हैं, यह भी बतलाया गया हरिभद्र को इनमें कर्मकाण्डों का मुनियो के लिए निषेध करना पड़ा। है। पूजाविधि की चर्चा करते हुए यह भी बताया गया है कि प्रात: काल ज्ञातव्य है कि हरिभद्र ने सम्बोधप्रकरण के कुगुरु अधिकार में चैत्यों में वासक्षेप-पूजा करनी चाहिए। इसमें पूजा में जिनबिम्ब के भाल, कंठ निवास, जिन-प्रतिमा की द्रव्यपूजा, जिन-प्रतिमा के समक्ष नृत्य, गान, आदि नव स्थानों पर चंदन के तिलक करने का भी उल्लेख है। इसमें यह नाटक आदि का जैन-मुनि के लिए निषेध किया है। यद्यपि पंचाशक में भी बताया गया है कि मध्याह्नकाल में कुसुम से तथा संध्या को धूप और उन्होंने इन पूजा-विधानों को गृहस्थ के लिए करणीय माना है। दीप से पूजा की जानी चाहिए। इसमें पूजा के लिए कीट आदि से रहित पुष्यों के ग्रहण करने का उल्लेख है। साथ-साथ यह भी बताया गया है जैनधर्म का अनुष्ठानपरक जैन-साहित्य . कि पूजा के लिए पुष्प के टुकड़े करना या उन्हें छेदना निषिद्ध है। इसमे
अनुष्ठान सम्बन्धी विधि-विधानों को लेकर जैन-परंपरा के गंध, धूप, अक्षत, दीप, जल, नैवेद्य फल आदि अष्टद्रव्यों से पूजा का दोनों ही सम्प्रदायों में अनेक ग्रन्थ रचे गये हैं। इनमें श्वेताम्बर-परंपरा में भी उल्लेख है। इस प्रकार यह ग्रंथ भी श्वेताम्बर जैन-परम्परा की पूजा- उमास्वाति का 'पूजाविधिप्रकरण', पादलिप्तसूरि की 'निर्वाणकलिका' पद्धति का प्राचीनतम आधार कहा जा सकता है। दिगम्बर-परम्परा में अपरनाम 'प्रतिष्ठा-विधान' एवं हरिभद्रसूरि का 'पंचाशकप्रकरण' प्रमुख जिनसेन के महापुराण में एवं यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ति में जिन- प्राचीन ग्रन्थ कहे जाते हैं। हरिभद्र के १९ पंचाशकों में श्रावकधर्म पंचाशक, प्रतिमा की पूजा के उल्लेख हैं।
दीक्षा पंचाशक, वंदन पंचाशक, पूजा पंचाशक (इसमें विस्तार से जिनपूजा _इस समग्र चर्चा में हमें ऐसा लगता है कि जैनपरम्परा में का उल्लेख है), प्रत्याख्यान पंचाशक, स्तवन पंचाशक, जिनभवननिर्माण सर्वप्रथम धार्मिक अनुष्ठान के रूप में षडावश्यकों का विकास हुआ। पंचाशक, जिनबिम्बप्रतिष्ठा पंचाशक, जिनयात्रा विधान पंचाशक, उन्हीं षडावश्यकों में स्तवन या स्तुति का स्थान भी था। उसी से आगे श्रमणोपासकप्रतिमा पंचाशक, साधुधर्मपंचाशक, साधुसमाचारी पंचाशक, चलकर भावपूजा और द्रव्यपूजा की कल्पना सामने आई। उसमें भी पिण्डविशुद्धि पंचाशक, शील-अंग पंचाशक, आलोचना पंचाशक, द्रव्यपूजा का विधान केवल श्रावकों के लिए हुआ। तत्पश्चात् श्वेताम्बर प्रायश्चित्त पंचाशक, दसकल्प पंचाशक, भिक्षुप्रतिमा पंचाशक, तप पंचाशक
और दिगम्बर दोनों परंपराओं में जिन-पूजा सम्बन्धी जो जटिल विधि- आदि हैं। प्रत्येक पंचाशक ५०-५० गाथाओं में अपने-अपने विषय का विधानों का विस्तार हुआ, वह भी ब्राह्मण-परम्परा का प्रभाव था। फिर विवरण प्रस्तुत करता है। इस पर चन्द्रकुल के नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरि आगे चलकर जिनमंदिर के निर्माण एवं जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा के का विवरण भी उपलब्ध है। जैन धार्मिक क्रियाओं के सम्बन्ध में एक सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विधि-विधान बने। पं० फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री दूसरा प्रमुख ग्रन्थ 'अनुष्ठानविधि' है। यह धनेश्वरसूरि के शिष्य चन्द्रसूरि ज्ञानपीठ पूजांजलि की भूमिका में और स्व० डॉ० नेमिचंदजी शास्त्री ने की रचना है। यह महाराष्ट्री प्राकृत में रचित है तथा इसमें सम्यक्त्वअपने एक लेख पुष्पकर्म-देवपूजा: विकास एवं विधि' में इस बात को आरोपणविधि, व्रत-आरोपणविधि, पाण्मासिक सामायिक विधि, स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि जैन-परंपरा में पूजा-द्रव्यों का क्रमशः श्रावकप्रतिमावहनविधि, उपधानविधि, प्रकरणविधि, मालाविधि, तपविधि, विकास हुआ है। यद्यपि पुष्पपूजा प्राचीनकाल से प्रचलित है फिर भी यह आराधनाविधि, प्रव्रज्याविधि उपस्थापनाविधि, केशलोचविधि, जैन-परंपरा के आत्यन्तिक अहिंसा सिद्धान्त से मेल नहीं खाती है। एक पंचप्रतिक्रमणविधि, आचार्य उपाध्याय एवं महत्तरा पदप्रदानविधि, पोषधविधि, ओर तो जैन पूजा-विधान पाठ में ऐसे हैं, जिनमें मार्ग में होने वाली ध्वजरोपणविधि, कलशरोपणविधि आदि के साथ आत्मरक्षा कवच एवं एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा काप्रायश्चित हो, यथा
सकलीकरण जैसी तान्त्रिक क्रियाओं के निर्देश मिलते हैं। इस कृति के ईर्यापथे प्रचलताद्य मया प्रमादात्
पश्चात् तिलकाचार्य की 'समाचारी' नामक कृति भी लगभग इन्हीं विषयों एकेन्द्रियप्रमुखजीवनिकाय बाधा।
का विवेचन करती है। जैन कर्मकाण्डों का विवेचन करने वाले अन्य निदर्तिता यदि भवेव युगान्तरेक्षा,
ग्रन्थों में सोमसुन्दरसूरि का 'समाचारी शतक', जिनप्रभसूरि (वि०सं० मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरुभक्तितो मे।।
१३६३) की 'विधिमार्गप्रपा, वर्धमानसूरि का 'आचारदिनकर', हर्षभूषणगणि स्मरणीय है कि श्वे० परम्परा में चैत्यवंदन में भी 'इरियाविहि (वि०सं० १४८०) का श्राद्धविधिविनिश्चय' तथा समयसुन्दर का 'समाचारी विराहनाये' नामक पाठ मिलता है- जिसका तात्पर्य भी चैत्यवंदन के शतक' भी महत्त्वपूर्ण है। इनके अतिरिक्त प्रतिष्ठाकल्प के नाम से अनेक लिए जाने में हुई एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का भी प्रायश्चित्त किया जाता लेखों की कृतियाँ हैं, जिनमें जैन-परम्परा के अनुष्ठानों की चर्चा है। है। तो दूसरी ओर उन पूजा-विधानों में, पृथ्वी, वायु, अप अग्नि और दिगम्बर-परम्परा में धार्मिक क्रियाकाण्डों को लेकर वसुनन्दि का वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का विधान है, यह एक 'प्रतिष्ठासारसंग्रह' (वि०सं० ११५०), आशाधर का 'जिनयज्ञकल्प' आन्तरिक असंगति तो है ही। यद्यपि यह भी सत्य है कि चौथी-पाँचवीं (सं० १२८५) एवं महाभिषेककल्प, सुमतिसागर का
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