Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचार
बौद्ध-दर्शन में सम्यक-दर्शन का स्वरूप
आवश्यक समझते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति बुद्धधर्म और संघ के प्रति जैसा कि हमने पूर्व में देखा बौद्ध-परम्परा में जैन-परम्परा के निष्ठावान रहे। बुद्ध श्रद्धा को प्रज्ञा से समन्वित करके चलते हैं। मज्झिमनिकाय सम्यक्दर्शन के स्थान पर सम्यक् समाधि; श्रद्धा या चित्त का विवेचन में बुद्ध यह स्पष्ट कर देते हैं कि समीक्षा के द्वारा ही उचित प्रतीत होने उपलब्ध होता है। बुद्ध ने अपने त्रिविध साधना-मार्ग में कहीं शील, पर धर्म का ग्रहण करना चाहिए।७२ विवेक और समीक्षा यह सदैव ही समाधि और प्रज्ञा, कहीं शील, चित्त और प्रज्ञा और कहीं शील, श्रद्धा बुद्ध को स्वीकृत रहे हैं। बुद्ध भिक्षुओं को सावधान करते हुए कहते थे
और प्रज्ञा का विवेचन किया है। इस आधार पर हम देखते है कि बौद्ध- कि भिक्षुओ, क्या तुम शास्ता के गौरव से तो हाँ नहीं कह रहे हो? परम्परा में समाधि, चित्त और श्रद्धा का प्रयोग सामान्यतया एक ही अर्थ भिक्षुओ, जो तुम्हारा अपना देखा हुआ, अपना अनुभव किया हुआ है में हुआ है। वस्तुत: श्रद्धा चित्त-विकल्प की शून्यता की ओर ही ले जाती क्या उसी को तुम कह रहे हो।७३ इस प्रकार बुद्ध श्रद्धा को प्रज्ञा से है। श्रद्धा के उत्पन्न हो जाने पर विकल्प समाप्त हो जाते हैं। उसी प्रकार समन्वित कर देते हैं। सामान्यतया बौद्ध-दर्शन में श्रद्धा को प्रथम और समाधि की अवस्था में भी चित्त विकल्प नहीं होते हैं। अत: चित्त, समाधि प्रज्ञा को अन्तिम स्थान दिया गया है। साधना-मार्ग की दृष्टि से श्रद्धा
और श्रद्धा एक ही अर्थ की अभिव्यक्ति करते हैं। यद्यपि अपेक्षा भेद से पहले आती है और प्रज्ञा उसके पश्चात् उत्पन्न होती है। श्रद्धा के कारण इनके अर्थों में भिन्नता भी रही हुई है। श्रद्धा बुद्ध, संघ और धर्म के प्रति ही धर्म का श्रवण, ग्रहण, परीक्षण और वीर्यारम्भ होता है। नैतिक जीवन अनन्य निष्ठा है तो समाधि चित्त की शांत अवस्था है।
के लिए श्रद्धा कैसे आवश्यक होती है इसका सुन्दर चित्रण बौद्ध-परम्परा बौद्ध-परम्परा में सम्यग्दर्शन का अर्थसाम्य बहुत कुछ सम्यग्दृष्टि के सौन्दरनन्द नामक ग्रन्थ में किया जाता है। उसमें बुद्ध नन्द के प्रति से है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में सम्यग्दर्शन तत्त्वश्रद्धा है उसी प्रकार कहते हैं कि पृथ्वी के भीतर जल है यह श्रद्धा जब मनुष्य को होती है तब बौद्धदर्शन में सम्यक्दृष्टि चार आर्यसत्यों के प्रति श्रद्धा है। जिस प्रकार प्रयोजन होने पर पृथ्वी को प्रयत्नपूर्वक खोदता है। भूमि से अन्न की उत्पत्ति जैन-धर्म में सम्यक् दर्शन का अर्थ देव, गुरु और धर्म के प्रति निष्ठा होती है, यदि यह श्रद्धा कृषक में न हो तो वह भूमि में बीज ही नहीं बोयेगा। माना गया है उसी प्रकार बौद्धदर्शन में श्रद्धा का अर्थ बुद्ध, धर्म एवं संघ धर्म की उत्पत्ति में श्रद्धा उत्तम कारण मानी गई है। जब तक मनुष्य तत्त्व को के प्रति निष्ठा है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में देव के रूप में अरिहंत को देख या सुन नहीं लेता तब तक उसकी श्रद्धा स्थिर नहीं होती। साधना के साधना-आदर्श स्वीकार किया जाता है उसी प्रकार बौद्ध-परम्परा में क्षेत्र में प्रथम अवस्था में श्रद्धा एक परिकल्पना के रूप में ग्रहण होती है और साधना-आदर्श के रूप में बुद्ध और बुद्धत्व को स्वीकार किया जाता है। वही अन्त में तत्त्वसाक्षात्कार बन जाती है। बुद्ध ने श्रद्धा और प्रज्ञा अथवा साधना-मार्ग के रूप में दोनों ही धर्म के प्रति निष्ठा का आवश्यक बताते दूसरे शब्दों में जीवन के बौद्धिक और भावात्मक पक्षों में एक समन्वय किया हैं। जहाँ तक साधना के पथ-प्रदर्शक का प्रश्न है जैन-परम्परा में पथ- है। यह एक ऐसा समन्वय है जिसमें न तो श्रद्धा अन्धश्रद्धा बनती है और प्रदर्शक के रूप में गुरु को स्वीकार किया गया है, जबकि बौद्ध-परम्परा न प्रज्ञा केवल बौद्धिक या तर्कात्मक ज्ञान बन कर रह जाती है। उसके स्थान पर संघ को स्वीकार करती है।
जिस प्रकार जैन-दर्शन में सम्यकदर्शन के शंकाशीलता, आकांक्षा, जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया, जैन-दर्शन में सम्यग्दर्शन विचिकित्सा आदि दोष माने गए हैं उसी प्रकार बौद्ध परम्परा में भी पाँच के दृष्टिकोणपरक और श्रद्धापरक ऐसे दो अर्थ स्वीकृत रहे हैं। बौद्ध- नीवरण माने गाये हैं। जो इस प्रकार हैंपरम्परा में श्रद्धा और सम्यग्दृष्टि दो भिन्न भिन्न तथ्य माने गये हैं। दोनों १. कामच्छन्द (कामभोगों की चाह) समवेत रूप से जैन-दर्शन के सम्यग्दर्शन शब्द के अर्थ को बौद्ध-दर्शन २. अव्यापाद (अविहिंसा) में स्पष्ट कर देते हैं।
३. स्त्यानगृद्ध (मानसिक और चैतसिक आलस्य) जैन-परम्परा में सम्यग्दर्शन को तत्त्वदृष्टि या तत्त्वश्रद्धान् से
४. औद्धत्य-कौकृत्य (चित्त की चंचलता), और भिन्न श्रद्धापरक अर्थ में भी लिया जाता हैं। बौद्ध परम्परा में उसकी तुलना ५. विचिकित्सा (शंका)७४ | श्रद्धा से की जा सकती है। बौद्ध-परम्परा में श्रद्धा पाँच इन्द्रियों में प्रथम तुलनात्मक दृष्टि से अगर हम देखें तो बौद्ध-परम्परा का • इन्द्रिय, पाँच बलों में अन्तिम बल और स्रोतापत्र अवस्था के चार अंगों कामच्छन्द जैन-परम्परा के कांक्षा नामक अतिचार के समान है। इसी में प्रथम अंग मानी गई है। बौद्ध-परम्परा में श्रद्धा का अर्थ चित्त की प्रकार विचिकित्सा को भी दोनों ही दर्शनों में स्वीकार किया गया हैं। प्रसादमयी अवस्था माना गया है। श्रद्धा जब चित्त में उत्पन्न होती है तो जैन-परम्परा में संशय और विचिकित्सा दोनों अलग-अलग माने गए है वह चित्त को प्रीति और प्रामोद्य से भर देती है और चित्तमलों को नष्ट कर लेकिन बौद्ध-परम्परा दोनों का अन्तर्भाव एक में ही कर देती है। इस देती है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि बौद्ध-परम्परा में श्रद्धा प्रकार कुछ सामान्य मतभेदों को छोड़ कर जैन और बौद्ध दृष्टिकोण अन्धविश्वास नहीं वरन् एक बुद्धिसम्मत अनुभव है। यह विश्वास करना एक-दूसरे के निकट ही आते हैं। नहीं वरन् साक्षात्कार के पश्चात् उत्पन्न हुई तत्त्वनिष्ठा है। बुद्ध एक ओर यह मानते हैं कि धर्म का ग्रहण स्वयं के द्वारा जानकर ही करना चाहिए। गीता में श्रद्धा का स्वरूप एवं वर्गीकरण कलामासुत्त में उन्होंने इसे सविस्तार स्पष्ट किया है। दूसरी ओर वे यह भी जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया कि गीता में सम्यग्दर्शन
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